महाभारत वन पर्व अध्याय 60 श्लोक 1-19

षष्टितम (60) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


दुःखित दमयन्ती का वार्ष्‍णेय के द्वारा कुमार-कुमारी को कुण्डिनपुर भेजना

बृहदश्व मुनि कहते हैं- राजन्! तदनन्तर दमयन्ती ने देखा कि पुण्यश्लोक महाराज नल उन्मत्त की भाँति द्यूतक्रीड़ा में आसक्त हैं। वह स्वयं सावधान थी। उनकी वैसी अवस्था देख भीमकुमारी भय और शोक से व्याकुल हो गयी और महाराज के हित के लिये किसी महत्त्वपूर्ण कार्य का चिन्तन करने लगी। उनके मन में यह आशंका हो गयी कि राजा पर बहुत बड़ा कष्ट आने वाला है। वह उनका प्रिय एवं हित करना चाहती थी। अतः महाराज के सर्वस्व का अपहरण होता जान धाय को बुलाकर (इस प्रकार बोली)।

उनकी धाय का नाम बृहत्सेना था। यह अत्यन्त यशस्विनी और परिचर्या के कार्य में निपुण थी। समस्त कार्यों के साधन में कुशल, हितैषिणी, अनुरागिणी और मधुरभाषिणी थी। (दमयन्ती ने उससे कहा)- ‘बृहत्सेने! तुम मंत्रियों के पास जाओ तथा राजा नल की आज्ञा से उन्हें बुला लाओ। फिर उन्हें यह बताओ कि अमुक-अमुक द्रव्य हारा जा चुका है और अमुक धन अभी अवशिष्ट है’। तब वे सब मंत्री राजा नल का आदेश जानकर ‘हमारा अहो भाग्य है’ ऐसा कहते हुए नल के पास आये। वे सारी (मंत्री आदि) प्रकृतियां दूसरी बार राजद्वार पर उपस्थित हुईं। दमयन्ती ने इसकी सूचना महाराज नल का दी, परन्तु उन्होंने इस बात का अभिनन्दन नहीं किया। पति को अपनी बात का प्रसन्नतापूर्वक उत्तर देते न देख दमयन्ती लज्जित हो पुनः महल के भीतर चली गयी। वहाँ फिर उसने सुना कि सारे पासे लगातार पुण्यश्लोक राजा नल के विपरित पड़ रहे हैं और उनका सर्वस्व अपहृत हो रहा है। तब उसने पुनः धाय से कहा- ‘बृहत्सेने! फिर राजा नल की आज्ञा से जाओ और वार्ष्‍णेय सूत को बुला लाओ। कल्याणि! एक बहुत बड़ा कार्य उपस्थित हुआ है’।

बृहत्सेना ने दमयन्ती की बात सुनकर विश्वसनीय पुरुषों द्वारा वार्ष्‍णेय को बुलाया। तब अनिन्द्य स्वभाव वाली और देश काल को जानने वाली भीमकुमारी दमयन्ती ने वार्ष्णेय को मधुर वाणी में सान्त्वना देते हुए यह समयोचित बात कही- ‘सूत! तुम जानते हो कि महाराज तुम्हारे प्रति कैसा अच्छा बर्ताव करते थे। आज वे विषम संकट में पड़ गये हैं, अतः तुम्हें भी उनकी सहायता करनी चाहिये। राजा जैसे-जैसे पुष्कर से पराजित हो रहे हैं, वैसे-ही-वैसे जूए में उनकी आसक्ति बढ़ती जा रही है। जैसे पुष्कर के पासे उसकी इच्छा के अनुसार पड़ रहे हैं, वैसे ही नल के पासे विपरीत पड़ते देखे जा रहे हैं। वे सुहृदों और स्वजनों के वचन अच्छी तरह नहीं सुनते हैं। जूए ने उन्हें ऐसा मोहित कर रखा है कि इस समय वे मेरी बात का आदर नहीं कर रहे हैं। मैं इसमें महामना नैषध का निश्चय ही कोई दोष नहीं मानती। जूए से मोहित होने के कारण ही राजा मेरी बात का अभिनन्दन नहीं कर रहे हैं। सारथे! मैं तुम्हारी शरण में आयी हूं, मेरी बात मानो। मेरे मन में अशुभ विचार आते हैं, इससे अनुमान होता है कि राजा नल का राज्य से च्युत होना सम्भव है। तुम महाराज के प्रिय मन के समान वेगशाली अश्वों को रथ में जोतकर उस पर इन दोनों बच्चों को बिठा लो और कुण्डिनपुर को चले जाओ’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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