त्रयस्त्रिंशदधिकशततम (133) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- भारत! जब द्रोण ने देख कि धृतराष्ट्र के पुत्र तथा पाण्डव अस्त्र-विद्या की शिक्षा समाप्त कर चुके, तब उन्होंने कृपाचार्य, सोमदत्त, बुद्धिमान् बाह्लीक, गंगानन्दन भीष्म, महर्षि व्यास तथा विदुर जी के निकट राजा धृतराष्ट्र से कहा- ‘राजन्! आपके कुमार अस्त्र-विद्या की शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। कुरुश्रेष्ठ! यदि आपकी अनुमति हो तो वे अपनी सीखी हुई अस्त्र संचालन की कला का प्रदर्शन करें।’ यह सुनकर महाराज धृतराष्ट्र अत्यन्त प्रसन्न चित्त से बोले। धृतराष्ट्र ने कहा- द्विजश्रेष्ठ भरद्वाजनन्दन! आपने (राजकुमारों को अस्त्र की शिक्षा देकर) बहुत बड़ा कार्य किया है। आप कुमारों की अस्त्र-शिक्षा के प्रदर्शन के लिये जब जो समय ठीक समझें, जिस स्थान पर जिस-जिस प्रकार का प्रबन्ध आवश्यक मानें, उस-उस तरह की तैयारी करने के लिये स्वयं ही मुझे आज्ञा दें। आज मैं नेत्रहीन होने के कारण दुखी होकर, जिनके पास आंखें हैं, उन मनुष्यों के सुख और सौभाग्य को पाने के लिये तरस रहा हूं; क्योंकि वे अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन करने के लिये भाँति-भाँति के पराक्रम करने वाले मेरे पुत्रों को देखेंगे। (आचार्य से इतना कहकर राजा धृतराष्ट्र विदुर से बोले-) ‘धर्मवत्सल! विदुर! गुरु द्रोणाचार्य जो काम जैसे कहते हैं, उसी प्रकार उसे करो। मेरी राय में इसके समान प्रिय कार्य दूसरा नहीं होगा’। तदनन्तर राजा की आज्ञा लेकर विदुर जी (आचार्य द्रोण के साथ) बाहर निकले। महाबुद्धिमान् भरद्वाजनन्दन द्रोण ने रंगमण्डप के लिये एक भूमि पसंद की और उसका माप करवाया। वह भूमि समतल थी। उसमें वृक्ष या झाड़-झंखाड़ नहीं थे। वह उत्तर दिशा की ओर नीची थी। वक्ताओं में श्रेष्ठ द्रोण ने वास्तु पूजन देखने के लिये डिण्डिम- घोष कराके वीर समुदाय को आमन्त्रित किया और उत्तम नक्षत्र से युक्त तिथि में उस भूमि पर वास्तु पूजन किया। तत्पश्चात् उनके शिल्पियों ने उस रंगभूमि में वास्तु–शास्त्र के अनुसार विविधपूर्वक एक अति विशाल प्रेक्षागृह[1] की नींव डाली तथा राजा और राजघराने की स्त्रियों के बैठने के लिये वहाँ सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न बहुत सुन्दर भवन बनाया। जनपद् के लोगों ने अपने बैठने के लिये वहाँ ऊंचे और विशाल मञ्च बनवाये तथा (स्त्रियों को लाने के लिये) बहुमूल्य शिबिकाऐं तैयार करायीं। तत्पश्चात् जब निश्चित दिन आया, तब मन्त्रियों सहित राजा धृतराष्ट्र भीष्म जी तथा आचार्यप्रबर कृप को आगे करके बाह्लीक, सोमदत्त, भूरिश्रवा तथा अन्यान्य कौरवों और मन्त्रियों को साथ ले नगर से बाहर उस दिव्य प्रेक्षागृह में आये। उसमें मोतियों की झालरें लगी थीं, वैदूर्य मणियों से उस भवन को सजाया गया था तथा दीवारों में स्वर्ण खण्ड मढ़े गये थे। विजयीवीरों में श्रेष्ठ जनमेजय! परम सौभाग्यशालिनी गान्धारी, कुन्ती तथा राजभवन की सभी स्त्रियां वस्त्राभूषणों से सज-धजकर दास-दासियों और आवश्यक सामग्रियों के साथ उस भवन में आयीं तथा जैसे देवांगनाऐं मेरु पर्वत पर चढ़ती हैं, उसी प्रकार वे हर्षपूर्वक मञ्चों पर चढ़ गयीं। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारों वर्णों के लोग कुमारों का अस्त्र-कौशल देखने की इच्छा से तुरंत नगर से निकलकर आ गये। क्षणभर में वहाँ विशाल जनसमुदाय एकत्र हो गया। अनेक प्रकार के बाजों के बजने से तथा मनुष्यों के बढ़ते हुए कौतुहल से वह जनसमूह उस समय क्षुब्ध महासागर के समान जान पड़ता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो उत्सव या नाटक आदि को सुविधापूर्वक देखने के उद्देश्य से बनाया गया हो, उसे प्रेक्षागृअॅह या प्रेक्षाभवन कहते हैं।
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