महाभारत विराट पर्व अध्याय 23 श्लोक 1-16

त्रयोविंश (23) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: त्रयोविंश अध्यायः अध्याय श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

उपकीचकों का सैरन्ध्री को बाँधकर श्मशानभूमि में ले जाना और भीमसेन का उन सबको मारकर सैरन्ध्री को छुड़ाना

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! उसी समय यह समाचार पाकर कीचक के बन्धु-बान्धव वहाँ आ गये। वे कीचक की यह दशा देख उसे चारों ओर से घेरकर विलाप करने लगे। उसके सारे अवयव शरीर में घुस गये थे, इसलिये वह जल से निकालकर स्थल में रक्खे हुए कछुए के समान जान पड़ता था। कीचक के शव की वह दुर्गति देखकर वे सब थर्रा उठे, उन सबके रोंगटे खड़े हो गये। जैसे इन्द्र ने दानव वृत्रासुर का वध किया था, उसी प्रकार भीमसेन के हाथ से मारे गये उस कीचक का दाह-संस्कार करने की इच्छा से उसके बान्धवगण उसे बाहर (श्मशानभूमि में) ले जने की तैयारी करने लगे।

इसी समय वहाँ आये हुए सूतपुत्रों ने देखा, निर्दोष अंगों वाली द्रौपदी थोड़ी ही दूर पर एक खंभे का सहारा लिये खड़ी है। जब सब लोग जुट गये, तब उन उपकीचकों (कीचक के भाइयों) ने द्रौपदी को लक्ष्य करके कहा- ‘इस दुष्ट को शीघ्र मार डाला जाय, क्योंकि इसी के लिये कीचक की जान गयी है।। ‘अथवा मारा न जाय। कामी कीचक की लाश के साथ इसे भी जला दिया जाय। मर जाने पर भी सूतपुत्र का जो पिंय हो; जिससे उसकी आत्मा प्रसन्न हो, वह कार्य हमें सर्वथा करना चाहिये’। तदनन्तर उन्होंने विराट से कहा- ‘इस सैरन्ध्री के लिये ही कीचक मारा गया है, अतः आज हम कीचक की लाश के साथ इसे भी जला देना चाहते हैं, आप इसके लिये आज्ञा दें’। राजा ने सूतपुत्रों के पराक्रम का विचार करके सैरन्ध्री को कीचक के साथ जला डालने की अनुमति दे दी। फिर क्या था, उपकीचकों ने उसके पास जाकर भयभीत एवं मूर्च्छित हुई कमललोचना कृष्णा को बलपूर्वक पकड़ लिया।। फिर उन्होंने सुन्दर कटिभाग वाली उस देवी को टिकटी पर चढ़ाकर लाश के साथ बाँध दिया। इसके बाद वे सब लोग मृतक को उठाकर श्मशानभूमि की ओर ले चले। राजन्! सूतपुत्रों द्वारा इस प्रकार ले जायी जाती हुई सती द्रौपदी सनाथा होकर भी (अनाथा सी हो रही थी, वह) नाथ (रक्षक) की इच्छा करती हूई जोर-जोर से पुकारने लगी।

द्रौपदी बोली- मेरे पति जय, जयन्त, विजय, जयत्सेन ओर जयद्वल जहाँ भी हों, मेरी यह आर्त वाणी सुनें और समझें। ये सूतपुत्र मुझे श्मशान में लिये जा रहे हैं। जिन वेगवान् गन्धर्वों के धनुषों की प्रत्यंचा का भीषण शब्द वज्राघात के समान सुनायी देता है तथा जिनके रथों की घर्घराहट की आवाज भी बड़े जोर से उठती और दूर तक फैलती है, वे मेरी मेरी यह आर्त वाणी सुनें और समझें। ये सूतपुत्र मुझे श्मशान में लिये जा रहे हैं।

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! द्रौपदी की वह दीन वाणी और करूण विलाप सुनते ही भीमसेन बिना कोई विचार किये शय्या से कूद पडत्रे।

भीमसेन बोले- सैरन्ध्री! तुम जो कुछ कह रही हो, तुमहारी वाणी मैं सुनता हूँ। इसीलिये भीरु! अब इन सूतपुत्रों से तेरे लिये कोई भय नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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