महाभारत शल्य पर्व अध्याय 63 श्लोक 1-19

त्रिषष्टितम (63) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: त्रिषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर की प्रेरणा से श्रीकृष्‍ण का हस्तिनापुर में जाकर धृतराष्ट्र और गांधारी को आश्वासन दे पुन: पाण्‍डवों के पास लौट आना


जनमेजय ने पूछा- द्विजश्रेष्ठ! धर्मराज युधिष्ठिर ने शत्रुसंतापी भगवान श्रीकृष्ण को गान्धारी देवी के पास किसलिये भेजा? जब पूर्वकाल में श्रीकृष्ण संधि कराने के लिये कौरवों के पास गये थे, उस समय तो उन्हें उनका अभीष्ट मनोरथ प्राप्त ही नहीं हुआ, जिससे यह युद्ध उपस्थित हुआ। ब्रह्मन! जब युद्ध में सारे योद्धा मारे गये, दुर्योधन का भी अन्त हो गया, भूमण्डल में पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के शत्रुओं का सर्वथा अभाव हो गया, कौरव दल के लोग शिवि को सूना करके भाग गये और पाण्डवों के उस यश की प्राप्ति हो गयी, तब कौन-सा ऐसा कारण आ गया, जिससे श्रीकृष्ण पुनः हस्तिनापुर में गये? प्रियवर! मुझे इसका कोई छोटा मोटा कारण नहीं जान पड़ता, जिससे अप्रमेयस्वरूप साक्षात भगवान जनार्दन को ही जाना पड़ा। यजुर्वेदीय विद्वानों में श्रेष्ठ ब्राह्मणदेव! इस कार्य का निश्चय करने में जो भी कारण हो, वह सब यथार्थ रूप से मुझे बताइये।

वैशम्पायन जी ने कहा- भरतकुलभूषण नरेश! तुमने जो प्रश्न किया है, वह सर्वथा उचित है। तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब मैं तुझे यथार्थ रूप से बताऊँगा। राजन! भरतवंशी! धृतराष्ट्रपुत्र महाबली दुर्योधन को भीमसेन ने युद्ध में उसके नियम का उल्लंघन करके मारा है। वह गदा युद्ध के द्वारा अन्यायपूर्वक मार गया है। इन सब बातों पर दृष्टिपात करके युधिष्ठिर के मन में बड़ा भारी भय समा गया। वे घोर तपस्या से युक्त महाभागा तपस्विनी गान्धारी देवी का चिन्तन करने लगे। उन्होंने सोचा गान्धारी देवी कुपित होने पर तीनों लोकों को जलाकर भस्म कर सकती हैं। इस प्रकार चिन्ता करते हुए राजा युधिष्ठिर के हृदय में उस समय यह विचार हुआ कि पहले क्रोध से जलती हुई गान्धारी को शान्त कर देना चाहिये। वे हम लोगों के द्वारा इस तरह पुत्र का वध किया गया सुनकर कुपित हो अपने संकल्पजनित अग्नि से हमें भस्म कर डालेंगी। उनका पुत्र सरलता से युद्ध कर रहा था; परंतु छल से मारा गया। यह सुनकर गान्धारी देवी इस तीव्र दुःख को कैसे सह सकेगीं? इस तरह अनेक प्रकार से विचार करके धर्मराज युधिष्ठिर भय और शोक में डूब गये और वसुदेव नन्दन भगवान श्रीकृष्ण से बोले- गोविन्द! अच्युत! जिसे मन के द्वारा भी प्राप्त करना असम्भव था, वही यह अकण्टक राज्य हमें आपकी कृपा से प्राप्त हो गया। यादवनन्दन! महाबाहो! इस रोमांचकारी संग्राम में जो महान विनाश प्राप्त हुआ था, वह सब आपने प्रत्यक्ष देखा था। पूर्वकाल में देवासुर-संग्राम के अवसर पर जैसा आपने देवद्रोही दैत्यों के वध के लिये देवताओं की सहायता की थी, जिससे वे सारे देवशत्रु मारे गये, महाबाहु अच्युत! उसी प्रकार इस युद्ध में आपने हमें सहायता प्रदान की है। वृष्णिनन्दन! आपने सारथि का कार्य करके हम लोगों को बचा लिया। यदि आप इस महासमर में अर्जुन के स्वामी और सहायक न होते तो युद्ध में इस कौरव-सेनारूपी समुद्र पर विजय पाना कैसे सम्भव हो सकता था?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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