महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 96 श्लोक 1-13

षण्णवतितम (96) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

Prev.png

महाभारत: शान्ति पर्व: षण्णवतितम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा


भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! किसी भी भूपाल को अधर्म के द्वारा पृथ्वी पर विजय प्राप्त करने की इच्छा कभी नहीं करनी चाहिये। अधर्म से विजय पाकर कौन राजा सम्मानित हो सकता है? अधर्म से पायी हुई विजय स्वर्ग से गिराने वाली और अस्थायी होता है। भरतश्रेष्ठ! ऐसी विजय राजा और राज्य दोनों का पतन कर देती है। जिसका कवच छिन्न-भिन्न हो गया हो, जो ‘मैं आपका ही हूँ‘ ऐसा कह रहा हो और हाथ जोड़े खड़ा हो अथवा जिसने हथियार रख दिये हों, ऐसे विपक्षी योद्धा को कैद करके मारे नहीं। जो बल के द्वारा पराजित कर दिया गया हो, उसके साथ राजा कदापि युद्ध न करे। उसे कैद करके एक साल तक अनुकूल रहने की शिक्षा दे; फिर उसका नया जन्म होता है। वह विजयी राजा के लिये पुत्र के समान हो जाता है (इसलिये एक साल बाद उसे छोड़ देना चाहिये)। यदि राजा किसी कन्या को अपने पराक्रम से हरकर ले आवे तो एक तो एक साल तक उससे कोई प्रश्न न करे (एक साल के बाद पूछने पर यदि वह कन्या किसी दूसरे को वरण करना चाहे तो उसे लौटा देना चाहिये)। इसी प्रकार सहसा छल से अपहरण करके लाये हुए सम्पूर्ण धन के विषय में भी समझना चाहिये (उसे भी एक साल के बाद उसके स्वामी को लौटा देना चाहिये)।

चोर आदि अपराधियों का धन लाया गया हो तो उसे अपने पास न रखे (सार्वजनिक कार्यों में लगा दे) और यदि गौ छीनकर लायी गयी हो तो उसका दूध स्वयं न पीकर ब्राह्मणों का पिलावे। बैल हों तो उन्हें ब्राह्मण लोग ही गाड़ी आदि में जोतें अथवा उन सब अपहृत वस्तुओं या धन का स्वामी आकर क्षमा-प्रार्थना करे तो उसे क्षमा करके उसका धन उसे लौटा देना चाहिये। राजा को राजा के साथ ही युद्ध करना चाहिये। उसके लिये यही धर्म विहित है। जो राजा या राजकुमार नहीं है, उसे किसी प्रकार भी राजा पर अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार नहीं करना चाहिये। दोनों ओर की सेनाओं के भिड़ जाने पर यदि उनके बीच में संधि कराने की इच्छा से ब्राह्मण आ जाय तो दोनों पक्षवालों को तत्काल युद्ध बंद कर देना चाहिये। इन दोनों में से जो कोई भी पक्ष ब्राह्मण का तिरस्कार करता है, वह सनातनकाल से चली आयी हुई मर्यादा को तोड़ता है। यदि अपने को क्षत्रिय कहने वाला अधम योद्धा उस मर्यादा का उल्लंघन कर ही डाले तो उसके बाद से उसे क्षत्रिय जाति के अंदर नहीं गिनना चाहिये और क्षत्रियों की सभा में उसे स्थान भी नहीं देना चाहिये। जो कोई धर्म का लोप और मर्यादा को भंग करके विजय पाता है, उसके इस बर्ताव का विजयाभिलाषी नरेश को अनुसरण नहीं करना चाहिये। धर्म के द्वारा प्राप्त हुई विजय से बढ़कर दूसरा कौन-सा लाभ हो सकता है?

विजयी राजा को चाहिये कि वह मधुर वचन बोलकर और उपभोग की वस्तुएँ देकर अनार्य (म्लेच्छ आदि) प्रजा को शीघ्रतापूर्वक प्रसन्न कर ले। यही राजाओं की सर्वोत्तम नीति है। यदि ऐसा न करके अनुचित कठोरता के द्वारा उन पर शासन किया जाता है तो वे दुखी होकर अपने देश से चले जाते हैं और शत्रु बनकर विजयी राजा की विपत्ति के समय की बाट देखते हुए कहीं पड़े रहते हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः