महाभारत आदि पर्व अध्याय 159 श्लोक 1-27

एकोनषष्‍टयधिकशततम (159) अध्‍याय: आदि पर्व (बकवध पर्व)

Prev.png

महाभारत: आदि पर्व: एकोनषष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद


कुन्‍ती के पूछने पर ब्राह्मण का उनसे अपने दु:ख का कारण बताना

कुन्‍ती ने पूछा- ब्रह्मन्! आप लोगों के इस दु:ख का कारण क्‍या है? मैं यह ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ। उसे जानकर यदि मिटाया जा सकेगा तो मिटाने की चेष्‍टा करुंगी। ब्राह्मण ने कहा- तपोधने! आप जो कुछ कह रही हैं, यह आप-जैसे सज्‍जनों के अनुरुप ही है; परंतु हमारे इस दु:ख को मनुष्‍य नहीं मिटा सकता। इस नगर के पास ही यहाँ से दो कोस की दूरी पर यमुना के किनारे घने जंगलों में एक गुफा है, उसी में एक भयंकर हिंसा प्रिय नरभक्षी राक्षस रहता है। उसका नाम है बक। वह राक्षस अत्‍यन्‍त बलवान् है। वही इस जनपद और नगर का स्‍वामी है। वह खोटी बुद्धि वाला मनुष्‍यभक्षी राक्षस मनुष्‍य के ही मांस से पुष्‍ट हुआ है। उस दुरात्‍मा नरभक्षी निशाचर द्वारा प्रतिदिन खायी जाती हुई यह नगरी अनाथ हो रही है। इसे कोई रक्षक या स्‍वामी नहीं मिल रहा है। राक्षसोचित्त बल से सम्‍पन्‍न वह शक्तिशाली असुरराज सदा इस जनपद, नगर और देश की रक्षा करता है। उसके कारण हमें शत्रुराज्‍यों तथा हिंसक प्राणियों से कभी भय नहीं होता। उसके लिये कर नियत किया गया है- बीस खारी अगहनी के चावल का भात, दो भैंसे और एक मनुष्‍य, जो वह सब सामान लेकर उस के पास जाता है। प्रत्‍येक गृहस्‍थ अपनी बारी आने पर उसे भोजन देता है। यद्यपि यह बारी बहुत वर्षों के बाद आती है, तथापि लोगों के लिये उसकी पूर्ति बहुत कठिन होती है। जो कोर्इ पुरुष कभी उससे छूटने का प्रयत्‍न करते हैं, वह राक्षस उन्‍हें पुत्र और स्‍त्री सहित मारकर खा जाता है।

वास्‍तव में जो यहाँ का राजा हैं, वह वेत्रकीयगृह नामक स्‍थान में रहता है। परंतु वह न्‍याय के मार्ग पर नहीं चलता। वह मन्‍दबुद्धि राजा यत्‍न करके भी ऐसा कोई उपाय नहीं करता, जिससे सदा के लिये प्रजा का संकट दूर हो जाय। निश्‍चय ही हम लोग ऐसा ही दु:ख भोगने के योग्‍य है; क्‍योंकि हम दुर्बल राजा के राज्‍य में निवास करते हैं, यहाँ के नित्‍य स्‍वामी हो गये हैं और इस दुष्ट आश्रय में रहते हैं। ब्राह्मणों को कौन आदेश दे सकता है अथवा वे किसके अधीन रह सकते हैं। ये तो इच्‍छानुसार विचरने वाले पक्षियों की भाँति देश या राजा के गुण देखकर ही कहीं भी निवास करते हैं। नीती कहती है, पहले अच्‍छे राजा को प्राप्‍त करे। उसके बाद पत्‍नी की और फिर धन की उपलब्धि करे। इन तीनों के संग्रह द्वारा अपने जाति-भाइयों तथा पुत्रों को संकट से बचाये। मैंने इन तीनों का विपरीत ढंग से उपार्जन किया है (अर्थात् दुष्‍ट राजा के राज्‍य में निवास किया, कुराज्‍य में विवाह किया और विवाह के पश्‍चात् धन नहीं कमाया); इसलिये इस विपत्ति में पड़कर हम लोग भारी कष्‍ट पा रहे हैं। वही आज हमारी बारी आयी है, जो समूचे कुल का विनाश करने वाली है। मुझे उस राक्षस को कर के रुप में नियत भोजन और एक पुरुष की बलि देनी पड़ेगी। मेरे पास धन नहीं है, जिससे कहीं से किसी पुरुष को खरीद लाऊं। अपने सुहृदों एवं सगे-सम्‍बन्धियों को तो मैं कदापि उस राक्षस के हाथ में नहीं दे सकूंगा। उस निशाचर से छूटने का कोई उपाय मुझे नहीं दिखायी देता; अत: मैं अत्‍यन्‍त दुस्‍तर दु:ख के महासागर में डूबा हुआ हूँ। अब इन बान्‍धवजनों के साथ ही मैं राक्षस के पास जाऊंगा फिर वह नीच निशाचर एक ही साथ हम सबको खा जायेगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत बकवध पर्व में कुन्‍ती प्रश्‍नविषयक एक सौ उनसठवां अध्‍याय पूरा हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः