महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 111 श्लोक 1-18

एकादशाधिकशततम (111) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

Prev.png

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


बृहस्पति का युधिष्ठिर से प्राणियों के जन्म के प्रकार का और नानाविध पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन

युधिष्ठिर ने कहा- सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञान में निपुण महाप्राज्ञ पितामह! अब मैं मनुष्यों की संसार यात्रा के निर्वाह की उत्तम विधि सुनना चाहता हूँ। रोजन्द्र! पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्य किस बर्ताव से उत्तम स्वर्गलोक को पाते हैं? और नरेश्‍वर! कैसा बर्ताव करने से वे नरक में पड़ते हैं? लोग अपने मृत शरीर को काठ और मिट्टी के ढेले के समान छोड़कर जब यहाँ से परलोक की राह लेते हैं, उस समय उनके पीछे कौन जाता है।

भीष्म जी ने कहा- वत्स! ये उदार बुद्धि भगवान बृहस्पति जी यहाँ पधार रहे हैं। इन्हीं महाभाग से इस सनातन गूढ़ विषय को पूछो। आज दूसरा कोई इस विषय का प्रतिपादन नहीं कर सकता। बृहस्पति जी के समान वक्ता दूसरा कोई कहीं भी नहीं है।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर और गंगानन्दन भीष्म, इन दोनों में इस प्रकार बात हो रही थी कि विशुद्ध अन्तःकरण वाले बृहस्पति जी स्वर्गलोक से वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखते ही राजा युधिष्ठिर धृतराष्ट्र को आगे करके खड़े हो गये। फिर उन्होंने तथा उन सभी सभासदों ने बृहस्पति जी की अनुपम पूजा की। तदनन्तर धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने भगवान बृहस्पति जी के समीप जाकर यथोचित रीति से यह तात्विक प्रश्‍न उपस्थित किया।

युधिष्ठिर ने पूछा- भगवन! आप सम्‍पूर्ण धर्मों के ज्ञाता और सब शास्त्रों के विद्वान हो; अतः बताइये, पिता, माता, पुत्र, गुरु, सजातीय सम्बन्धी और मित्र आदि में से मनुष्य का सच्चा सहायक कौन है? सब लोग अपने मरे हुए शरीर को काठ और ढेले के समान त्याग कर चले जाते हैं, तब इस जीव के साथ परलोक में कौन जाता है?

बृहस्पति जी ने कहा- राजन! प्राणी अकेला ही जन्म लेता और अकेला ही मरता, अकेला ही दुःख से पार होता तथा अकेला ही दुर्गति भोगता है। पिता, माता, भाई, पुत्र, गुरु, जातीय सम्बन्धी तथा मित्रवर- ये कोई भी उसके सहायक नहीं होते। लोग उसके मरे हुए शरीर को काठ और मिट्टी के ढेले की तरह फेंक कर दो घड़ी रोते हैं और फिर उसकी ओर से मुंह फेरकर चल देते हैं। वे कुटम्बीजन तो उसके शरीर का परित्याग करके चले जाते हैं, किंतु एक मात्र धर्म ही उस जीवात्मा का अनुशरण करता है; इसलिये धर्म ही सच्चा सहायक है। अतः मनुष्यों को सदा धर्म का ही सेवन करना चाहिये।

धर्मयुक्त प्राणी ही उत्तम स्वर्ग में जाता है और अधर्म परायण जीव नरक में पड़ता है। इसलिये विद्वान पुरुष को चाहिये कि न्याय से प्राप्त हुए धन के द्वारा धर्म का अनुष्ठान करे। एक मात्र धर्म ही परलोक में मनुष्यों का सहायक है। जो बहुश्रुत नहीं है, वही मनुष्य लोभ ओर मोह के वशीभूत हो दूसरे के लिये लोभ, मोह, दया अथवा भय से न करने योग्य पापकर्म कर बैठता है। धर्म, अर्थ और काम- ये तीन जीवन के फल हैं, अतः मनुष्य को अधर्म के त्यागपूर्वक इन तीनों को उपलब्ध करना चाहिये।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः