महाभारत विराट पर्व अध्याय 11 श्लोक 1-8

एकादशम (11) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: एकादशम अध्‍याय: श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन का राजा विराट से मिलना और राजा के द्वारा कन्याओं को नृत्य आदि की शिक्षा देने के लिये उनको नियुक्त करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर नगर की चहारदीवारी के पीछे जो मिट्टी का ऊँचा टीला था, उसके समीप रूप-सम्पदा से सुशोभित एक दूसरा पुरुष दिखायी दिया। उसका डील-डौल ऊँचा था। उसने स्त्रियों के लिये उचित आभूषण पहन रक्खे थे तथा कानों में बड़े-बड़े कुण्डल और हाथों में शंख की चूड़ियाँ पहनकर उनके ऊपर सोने के सुन्दर कंगन धारण कर लिये थे। अपने बड़े-बड़े केशों की लटों को खोलकर हाथों तक फैलाये वह महाबाहु पुरुष उस समय हाथी के समान मस्तानी चाल से चलता और पग-पग पर मानो पृथ्वी को कँपाता हुआ राजसभा के समीप राजा विराट के पास आकर खड़ा हुआ। छद्मवेश से अपने स्वरूप को छिपाकर सभाभवन में आया हुआ वह शत्रुविजयी वीर पुरुष अपने उत्कृष्ट तेज से प्रकाशित हो रहा था। गजराज के समान बल-विक्रम वाले उस महेन्द्र पुत्र अर्जुन को देखकर राजा ने समस्त सभासदों से पूछा- ‘यह कहाँ से आया है? आज से पहले मैंने कभी इसके विषय में नहीं सुना है।’

राजा के पूछने पर उन मनुष्यों में से किसी ने उस पुरुष को अपना परिचित नहीं बताया। तब राजा ने आश्चर्ययुक्त होकर यह बात कही- ‘तात! तुम शक्ति और धैर्य से सम्पन्न देवोपम पुरुष हो। तुम्हारी अंगकान्ति श्याम है। तुम तरुण हो और हाथियों के यूथ के अधिपति महान् गजराज के समान शोभा पा रहे हो। तुमने हाथों में शंख की चूड़ियाँ पहनकर उनके ऊपर सोने के सुन्दर कंगन डाल लिये हैं, वेणी खोलकर केशों की लटें छितरा रही हैं तथा कानों मे कुण्डल धारण कर गले में गजरा डाल रक्खा है। तुम्हारे केश बहुत ही सुन्दर हैं। तुम नारीजनोचित वेश-भूषा धारण करके भी उसके विपरीत धनुष-बाण और कवच धारण काने वाले वीर के समान शोभा पा रहे हो। तुम रथ आदि वाहनों पर बैठकर इच्छानुसार भ्रमण करो और मेरे पुत्रों के अथवा मेरे ही समान होकर रहो। मैं बूढ़ा हो गया हूँ; अब राजकाज छोड़ना चाहता हूँ; अतः तुम सम्पूर्ण मत्स्य देश का शीघ्र ही पालन करो। तुम्हारे जैसे स्वरूप वाले किसी तरह नपुंसक नहीं हो सकते। मेरे मन को ऐसा ही प्रतीत हो रहा है।

अर्जुन बोले- मैं वेणी-रचना अच्छी कर सकता हूँ, मनोहर मुण्डल बनाना जानता हूँ, फूलों के हार तथा ओढ़ने की चादरें सुन्दर ढंग से बनाता हूँ, स्नान करा सकता हूँ, दर्पण की सफाई करता हूँ और चन्दन आदि से अनेक प्रकार की रेखाएँ बनाकर श्रृंगार करने की क्रिया में मुझे विशेष कुशलता प्राप्त है। नपुंसकों, बालकों एवं साधारण लोगों में नाचने तथा संगीत एवं नृत्य की शिक्षा देने में मेरी अच्छी योग्यता है। स्त्रियों की वेणी में फूल गूँथने का कार्य भी में अच्छे ढंग से सम्पन्न करता हूँ। इन सब कार्यों में स्त्रियाँ भी मुझसे अधिक कुशल नहीं हैं।

निकट आने पर उसका कद बहुत ऊँचा देखकर महायशस्वी राजा विराट अत्यंत विस्मित होकर बोले। विराट ने कहा- नरदेवसिंह! ओज और बल से रहित नंपुसक का सा यह वेष तुम्हारे योग्य नहीं है। तुम क्लीब होने के योग्य नहीं हो। प्रभो! तुम्हारा यह वेष भगवान् भूतनाथ की भाँति अशुभ वेष-भूषा से विभूषित है। जैसे बादलों की घटा से आच्छादित आकाश में भी अंशुमाली सूर्य का मण्डल सुशोभित होता है, उसी प्रकार इस क्लीब-वेष में भी तुम पौरुष से प्रकाशित हो रहे हो। मेरा ऐसा विश्वास है कि तुम्हारी इन मोटी और अत्यन्त विशाल भुजाओं को धनुष ही सुशोभित कर सकता है।

अर्जुन ने कहा- नरदेव! मैं गाता, नाचता और बाजे बजाता हूँ। नृत्य कला में निपुण और संगीत-कला में भी कुशल हूँ। आप उत्तरा को शिक्षा देने के लिये मुझे रख लें। मैं स्वयं राजकुमारी उत्तरा को नृत्य सिखलाऊँगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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