महाभारत वन पर्व अध्याय 169 श्लोक 1-23

एकोनसप्तत्यधिकशततम (169) अध्‍याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोनसप्तत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन का पाताल में प्रवेश और निवातकवचों के साथ युद्धारम्भ

अर्जुन बोले- राजन्! तदनन्तर मार्ग में जहाँ-तहाँ महर्षि के मुख से अपनी स्तुति सुनते हुए मैंने जल के स्वामी समुद्र के पास पहुँचकर उसका निरीक्षण किया। वह देखने में अत्यन्त भयंकर था। उसका पानी कभी घटता-बढ़ता नहीं है। उसमें फेन से मिली हुई पहाड़ों के समान ऊँची-ऊँची लहरें उठकर नृत्य करती-सी दिखायी दे रही थीं। वे कभी इधर-उधर फैल जाती थीं और कभी आपस में टकरा जाती थीं। वहाँ सब ओर रत्नों से भरी हुई हजारों नावें चल रही थीं, जो आकाश में विचरते हुए विमानों-की सी शोभा पाती थीं तथा तिमिगिंल[1], तिमितिमिगिंल[2], कछुए और मगर पानी में डूबे हुए पर्वत के समान दृष्टिगोचर होते थे। सहस्रों शंख सब ओर जल में निमग्न थे। जैसे रात में झीने बादलों के आवरण से सहस्रों तारे चमकते दिखायी देते हैं, उसी प्रकार समुद्र के जल में स्थित हजारों रत्नसमूह तैरते हुए से प्रतीत हो रहे थे। औरों की तो बात ही क्या है, वहाँ भयानक वायु भी पथ-भ्रान्त की भाँति भटकने लगती है।

वायु का वह चक्कर काटना अद्भुत-सा प्रतीत हो रहा था। इस प्रकार अत्यन्त वेगशाली जलराशि महासागर को देखकर उसके पास ही मैंने दानवों से भरा हुआ वह दैत्य नगर भी देखा। रथ-संचालन में कुशल सारथि मातलि तुरंत वहाँ पहुँचकर पाताल[3] में उतरे तथा रथ पर सावधानी से बैठकर आगे बढ़े। उन्होंने रथ की घर्घराहट से सबको भयभीत करते हुए उस दैत्यपुरी की ओर धावा किया। आकाश में होने वाली मेघ-गर्जना के समान उस रथ का शब्द सुनकर दानव लोग मुझे देवराज इन्द्र समझकर भय से अत्यन्त व्याकूल हो उठे। सभी मन-ही-मन घबरा गये। सभी अपने हाथों में धनुष-बाण, तलवार, शूल, फरसा, गदा और मूसल आदि अस्त्र-शस्त्र लेकर खड़े हो गये। दानवों के मन में आतंक छा गया था। इसलिये उन्होंने नगर की रक्षा का प्रबन्ध करके सारे दरवाजे बंद कर लिये। नगर के बाहर कोई भी दिखायी नहीं देता था। तब मैंने बड़ी भयंकर ध्वनि करने वाले देवदत्त नामक शंख को हाथ में लेकर अत्यन्त प्रसन्न हो धीरे-धीरे उसे बजाया। वह शंखनाद स्वर्गलोक से टकराकर प्रतिध्वनि उत्पन्न करने लगा। उसकी आवाज सुनकर बड़े-बड़े प्राणी भी भयभीत हो इधर-उधर छिप गये।

भारत! तदनन्तर निवातकवच नामक सभी दैत्य आभूषणों से विभूषित हो भाँति-भाँति के कवच धारण किये, हाथों में विचित्र आयुध लिये, लोहे के बने हुए बड़े-बड़े शूल, गदा, मूसल, पट्टिश, करवाल, रथचक्र, शतध्नी (तोप) भुशुण्डि (बंदूक) तथा रत्नजटित विचित्र खंड आदि लेकर सहस्रों की संख्या में नगर से बाहर आये। भरतश्रेष्ठ! उस समय मातलि ने बहुत सोच-विचार कर समतल प्रदेश में रथ जाने योग्य मार्गों पर अपने उन घोड़ों को हांका। उनके हांकने पर उन शीघ्रगामी अश्वों की चाल इतनी तेज हो गयी कि मुझे उस समय कुछ भी दिखायी नहीं देता था। यह एक अद्भुत बात थी। तदनन्तर उन दानवों ने वहाँ भीषण स्वर और विकराल आकृति वाले विभिन्न प्रकार के सहस्रों बाजे जोर-जोर से बजाने आरम्भ किये। वाद्यों की उस तुमुल-ध्वनि से सहसा समुद्र के लाखों बड़े-बड़े पर्वताकार मत्स्य मर गये और उनकी लाशें पानी के ऊपर तैरने लगीं। तत्पश्चात् उन सब दानवों ने सैकड़ों और हजारों तीखे बाणों की वर्षा करते हुए बड़े वेग से मुझ पर आक्रमण किया। भारत! तब उन दानवों का और मेरा महाभयंकर तुमुल संग्राम आरम्भ हो गया, जो निवातकवचों के लिये विनाशकारी सिद्ध हुआ। उस समय बहुत-से देवर्षि तथा अन्य महर्षि एवं ब्रह्मार्षि और सिद्धगण उस महायुद्ध में (देखने के लिये) आये। वे सब-के-सब मेरी विजय चाहते थे। अतः उन्होंने जैसे तारकामय संग्राम के अवसर पर इन्द्र की स्तुति की थी, उसी प्रकार अनुकूल एवं मधुर वचनों द्वारा मेरा भी स्तवन किया।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्व में युद्धारम्भ विषयक एक सौ उनहरत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एक विशेष प्रकार के मत्स्य का नाम 'तिमि' है, जो उसे निगल जाता है, उस महामत्स्य को 'तिमिगिंल' कहते है।
  2. जो तिमिगिंल को भी निगल जाता हैं, उस महामहामत्स्य का नाम 'तिमितिमिगिंल' है।
  3. नीलकण्ठी टीका में लिखा है कि पृथ्वी में उतरकर निम्नस्थल में गये हुए रथ के चक्के को दृढ़तापूर्वक पकड़कर ऊँचा किया।

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