द्विपन्चाशदधिकशततम (152) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: द्विपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने कहा- जनेश्वर! आप कौन-सा फल देखकर ब्राह्मण पूजा में लगे रहते हैं? महमते! अथवा किस कर्म का उदय सोचकर आप उन ब्राह्मणों की पूजा-अर्चा करते हैं? भीष्म जी ने कहा- भरतनन्दन! इस विषय में विज्ञपुरुष कार्तवीर्य अर्जुन और वायु देवता के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पूर्वकाल की बात है- माहिष्मती नगरी में सहस्रभुजधारी परम कान्तिमान कार्तवीर्य अर्जुन नाम वाला एक हैहयवंशी राजा समस्त भूमण्डल का शासन करता था। वह महान बलवान और सत्य पराक्रमी था। इस लोक में सर्वत्र उसी का आधिपत्य था। एक समय कृतवीर्यकुमार अर्जुन ने क्षत्रिय धर्म को सामने रखते हुए विनय और शास्त्रज्ञान के अनुसार बहुत दिनों तक मुनिवर दत्तात्रेय की आराधना की तथा किसी कारणवश अपना सारा धन उनकी सेवा में समर्पित कर दिया। विप्रवर दत्तात्रेय उसके ऊपर बहुत संतुष्ट हुए और उन्होंने उसे तीन वरदान माँगने की आज्ञा दी। उनके द्वारा वर माँगने की आज्ञा मिलने पर राजा ने कहा- 'भगवन! मैं युद्ध में तो हज़ार भुजाओं से युक्त रहूँ, किन्तु घर पर मेरी दो ही बाँहें रहें। रणभूमि में सभी सैनिक मेरी एक हज़ार भुजाएँ देखें। कठोर व्रत का पालन करने वाले गुरुदेव! मैं अपने पराक्रम से सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लूँ। इस प्रकार पृथ्वी को धर्म के अनुसार प्राप्त कर मैं आलस्यरहित हो उसका पालन करूँ। द्विजश्रेष्ठ! इन तीन वरों के सिवा एक चौथा वर भी मैं आपसे माँगता हूँ। अनिन्द्य महर्षे! मुझ पर कृपा करने के लिये आप वह वर भी अवश्य प्रदान करें। मैं आपका आश्रित भक्त हूँ। यदि कभी मैं सन्मार्ग का परित्याग करके असत्य मार्ग का आश्रय लूँ तो श्रेष्ठ पुरुष मुझे राह पर लाने के लिये शिक्षा दें।' उसके इस प्रकार प्रार्थना करने पर दत्तात्रेय जी ने उस नरेश से कहा- 'तथास्तु- ऐसा ही हो।' फिर तो उस तेजस्वी राजा के लिये वे सभी वर उसी रूप में सफल हुए। तदनन्तर राजा कार्तवीर्य अर्जुन सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी रथ पर बैठकर (सम्पूर्ण पृथ्वी पर विजय पाने के पश्चात) बल के अभिमान से मोहित हो कहने लगा- 'धैर्य, वीर्य, यश, शूरता, पराक्रम और ओज में मेरे समान कौन है?' उसकी यह बात पूरी होते ही आकाशवाणी हुई- 'मूर्ख! तुझे पता नहीं है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय से भी श्रेष्ठ है। ब्राह्मण की सहायता से ही क्षत्रिय इस लोक में प्रजा की रक्षा करता है।' कार्तवीर्य अर्जुन ने कहा- मैं प्रसन्न होने पर प्राणियों की सृष्टि कर सकता हूँ और कुपित होने पर उनका नाश कर सकता हूँ। मन, वाणी और क्रिया द्वारा कोई भी ब्राह्मण मुझसे श्रेष्ठ नहीं है। इस जगत में ब्राह्मण की ही प्रधानता है- यह कथन पूर्वपक्ष है, क्षत्रिय की श्रेष्ठता ही उत्तर या सिद्धान्त पक्ष है। आपने ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों को प्रजापालनरूपी हेतु से युक्त बताया है, परंतु उनमें यह अन्तर देखा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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