महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 332 श्लोक 1-21

द्वात्रिंशदधिकत्रिशततम(332) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: द्वात्रिंशदधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


शुकदेवजी की ऊर्ध्वगति का वर्णन

भीष्मजी कहते हैं- भरतनन्दन! कैलास -शिखर पर आरूढत्र हो व्यासपुत्र शुकदेव एकान्त में तृणरहित समतल भूमि पर बैठ गये और शास्त्रोक्त विधि से पैर से लेकर सिर तक सम्पूर्ण अंगों में क्रमशः आतमा की धारणा करने लगे। वे क्रमयोग के पूर्ण ज्ञाता थे। थोड़ी ही देर में जब सूर्योदय हुआ, तब ज्ञानी शुकदेव हाथ-पैर समेटकर विनीतभाव से पूर्व दिशा में मुँह करके बैठे और योग में प्रवृत्त हो गये। उस समय बुद्धिमान व्यास-नन्दन जहाँ योगयुक्त हो रहे थे, वहाँ न तो पक्षियों का समुदाय था, न कोई शब्द सुनायी पडत्रता था और न दृष्टि को आकृष्ट करने वाला कोई दृश्य ही उपस्थित था। उस समय उन्होंने सब प्रकार कं संगों से रहित आत्मा का दर्शन किया। उस परमतत्त्व का साक्षात्कार करके शुकदेवजी जोर-जोर से हँसने लगे। फिर मोक्ष मार्ग की उपलब्धि के लिये योग का आश्रय ले महान् योगेश्वर होकर वे आकाश में उड़ने के लिये तैयार हो गये। तदनन्तर देवर्षि नारद के पास जा उनकी प्रदक्षिण की और परम ऋषि से अपने योग के सम्बन्ध में इस प्रकार निवेदन किया।

शुकदेव बोले- महातेजस्वी तपोधन! आपका कल्याण हो। अब मुझे मोक्ष मार्ग का दर्शन हो गया। मैं वहाँ जाने को तैयार हूँ। आपकी कृपा से मैं अभीष्ट गति प्राप्त करूँग। नारदजी की आज्ञा पाकर व्यासकुमार शुकदेवजी उन्हें प्रणाम करके पुनः योग में सिथत हो आकाश में प्रविष्ट हुए। कैलासशिखर से उछलकर वे तत्काल आकाश में जा पहुँचे और सुनिश्चित ज्ञान पाकर वायु का रूप धारण करके श्रीमान् शुकदेव अन्तरिक्ष में विचरने लगे। उस समय समसत प्राणियों ने ऊपर जाते हुए द्विजश्रेष्ठ शुकदेव को विनतानन्दन गरुड़ के समान कान्तिमान् तािा मन और वायु के समान वेगशाली देखा। वे निश्चयात्मक बंद्धि के द्वारा सम्पूर्ण त्रिलोकी को आत्मभाव से देखते हुए बहुत दूर तक आगे बढ़ गये। उस समय उनका तेज सूर्य और अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था। उन्हें निर्भय होकर शान्त और एकाग्रचित्त से ऊपर जाते समय समसत चराचर प्राणियों ने देखा और अपनी शक्ति तथा रीति के अनुसार उनका यथोचित पूजन किया। देवताओं ने उनपर दिव्य फूलों की वर्षा की। उन्हें इस प्रकार जाते देख समसत गन्धर्व, अप्सराओं के समुदाय तथा सिद्ध ऋषि-मुनि महान् आश्चर्य में पडत्र गये। और आपस में कहने लगे- ‘तपस्या से सिद्धि को प्राप्त हुआ यह कौन महात्मा आकाश मार्ग से जा रहा है, जिसका मुख-मण्डल ऊपर की ओर और शरीर का निचला भाग नीचे की ओर ही है ? हमारी आँखें बरबस इसकी ओर खिंच जाती हैं। तीनों लोकों में प्रसिद्ध परम धर्मात्मा शुकदेवजी पूर्व दिशा की ओर मुँह करके सूर्य को देखते हुए मौन भाव से आगे बढ़ रहे थे। वे अपने शब्द से सम्पूर्ण आकाश को पूर्ण सा कर रहे थे। राजन्! उन्हें सहसा आते देख सम्पूर्ण अप्सराएँ मन-ही-मन घबरा उठीं और अत्यन्त आश्चर्य में पडत्र गयीं। पन्चचूडा आदि अप्सराओं के नेत्र विस्मय से अत्यन्त खिल उठे थे। वे परस्पर कहने लगीें कि उत्तम गति का आरय लेकर यह कौन-सा देवता यहाँ आ रहा है ? इसका निश्चय अत्यन्त दृढ़ है। यह सब प्रकार के बन्धनों तथा संशयों से मुक्त सा हो गया है और इसके भीतर किसी वस्तु की कामना नहीं रह गयी है। कुछ ही देर में वे मलय नामक पर्वत पर जा पहुँचे, जहाँ उर्वशी और पूर्वचित्ति- ये दो अप्सराएँ सदा निवास करती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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