पंचदशाधिकशततम (115) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! आपने बहुत बार यह बात कही है कि अहिंसा परम धर्म है, अत: मांस के परित्यागरूप धर्म के विषय में मुझे संदेह हो गया है। इसलिये मैं यह जानना चाहता हूँ कि मांस खाने वाले की क्या हानि होती है और जो मांस नहीं खाता, उसे कौन-सा लाभ मिलता है? जो स्वयं पशु का वध करके उसका मांस खाता है या दूसरे के दिये हुए मांस का भक्षण करता है या जो दूसरे के खाने के लिये पशु का वध करता है अथवा जो खरीद कर मांस खाता है, उसको क्या दण्ड मिलता है? निष्पाप पितामह! मैं चाहता हूँ कि आप इस विषय का यथार्थ रूप से विेवेचन करें। मैं निश्चित रूप से इस सनातन धर्म के पालन की इच्छा रखता हूँ। मनुष्य किस प्रकार आयु प्राप्त करता है, कैसे बलवान होता है, किस तरह उसे पूर्णांगता प्राप्त होती है और कैसे वह शुभ लक्षणों से संयुक्त होता है? भीष्म जी ने कहा- राजन! कुरुनन्दन! मांस न खाने से जो धर्म होता है, उसका मुझसे यथार्थ वर्णन सुनो तथा उस धर्म की जो उत्तम विधि है, वह भी जान लो। जो सुन्दर रूप, पूर्णांगता, पूर्ण आयु, उत्तम बुद्धि, सत्व, बल और स्मरण शक्ति प्राप्त करना चाहते थे, उन महात्मा पुरुषों ने हिंसा का सर्वथा त्याग कर दिया था। कुरुनन्दन युधिष्ठिर! इस विषय को लेकर ऋषियों में अनेक बार प्रश्नोत्तर हो चुका है। अन्त में उन सबकी राय से जो सिद्धान्त निश्चित हुआ है, उसे बता रहा हूँ, सुनो। युधिष्ठिर! जो पुरुष नियमपूर्वक व्रत का पालन करता हुआ प्रतिमास अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान कारता है तथा जो केवल मद्य और मांस का परित्याग करता है, उन दोनों को एक-सा ही फल मिलता है। राजन! सप्तर्षि, वालखिल्य तथा सूर्य की किरणों का पान करने वाले अन्यान्य मनीषी, महर्षि मांस न खाने की ही प्रशंसा करते हैं। स्वायम्भुव मनु का कथन है कि- "जो मनुष्य न मांस खाता और न पशु की हिंसा करता और न दूसरे से ही हिंसा कराता है, वह सम्पूर्ण प्राणियों का मित्र है। जो पुरुष मांस का परित्याग कर देता है, उसका कोई भी प्राणी तिरस्कार नहीं करता है, वह सब प्राणियों का विश्वासपात्र हो जाता है तथा श्रेष्ठ पुरुष उसका सदा सम्मान करते हैं।" धर्मात्मा नारद जी कहते हैं- जो दूसरे के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, वह निश्चय ही दु:ख उठाता है। बृहस्पति जी का कथन है- जो मद्य और मांस त्याग देता है, वह दान देता, यज्ञ करता और तप करता है अर्थात उसे दान, यज्ञ और तपस्या का फल प्राप्त होता है। जो सौ वर्षों तक प्रतिमास अश्वमेध यज्ञ करता है और जो कभी मांस नहीं खाता है- इन दोनों का समान फल माना गया है। मद्य और मांस का परित्याग करने से मनुष्य सदा यज्ञ करने वाला, सदा दान देने वाला और सदा तप करने वाला होता है। भारत! जो पहले मांस खाता रहा हो और पीछे उसका सर्वथा परित्याग कर दे, उसको जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, उसे सम्पूर्ण वेद और यज्ञ भी नहीं प्राप्त करा सकते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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