पंचदशाधिकशततम (115) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद
इसलिये महाराज! तुम्हें यह विदित होना चाहिये कि मांस का परित्याग ही धर्म, स्वर्ग और सुख का सर्वोत्तम आधार है। अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है और अहिंसा परम सत्य है, क्योंकि उसी से धर्म की प्रवृत्ति हेाती है। तृण से, काठ से अथवा पत्थर से मांस नहीं पैदा होता है, वह जीव की हत्या करने पर ही उपलब्ध होता है। अत: उसके खाने में महान दोष है। जो लोग स्वाहा और (देवयज्ञ) और स्वधा (पितृयज्ञ) का अनुष्ठान करके यज्ञशिष्ट अमृत का भोजन करने वाले तथा सत्य और सरलता के प्रेमी हैं, वे देवता हैं; किंतु जो कुटिलता और असत्य भाषण में प्रवृत्त होकर सदा मांस भक्षण किया करते हैं, उन्हें राक्षस समझो। राजन! जो मनुष्य मांस नहीं खाता, उसे संकटपूर्ण स्थानों, भयंकर दुर्गों एवं गहन वनों में, रात-दिन और दोनों संध्याओं में, चौराहों पर तथा सभाओं में भी दूसरों से भय नहीं प्राप्त होता तथा यदि अपने विरुद्ध हथियार उठाये गये हों अथवा हिंसक पशु एवं सर्पेां के भय सामने हों तो भी वह दूसरों से नहीं डरता है। इतना ही नहीं, वह समस्त प्राणियों को शरण देने वाला और उन सबका विश्वासपात्र होता है। संसार में न तो वह दूसरे को उद्वेव में डालता है और न स्वयं ही कभी किसी से उद्विग्न होता है। यदि कोई भी मांस खाने वाला न रह जाये तो पशुओं की हिंसा करने वाला भी कोई न रहे; क्योंकि हत्यारा मनुष्य मांस खाने वालों के लिये ही पशुओं की हिंसा करता है। यदि मांस को अभक्ष्य समझ कर सब लोग उसे खाना छोड़ दें तो पशुओं की हत्या स्वत: ही बंद हो जाये, क्योंकि मांस खाने वालों के लिये ही मृग आदि पशुओं की हत्या होती है। महातेजस्वी नरेश! हिंसकों की आयु को उनका पाप ग्रस लेता है। इसलिये जो अपना कल्याण चाहता हो, वह मनुष्य मांस का सर्वथा परित्याग कर दे। जैसे यहाँ हिंसक पशुओं का लोग शिकार खेलते हैं और वे पशु अपने लिये कहीं कोई रक्षक नहीं पाते, उसी प्रकार प्राणियों की हिंसा करने वाले भयंकर मनुष्य दूसरे जन्म में सभी प्राणियों के उद्वेगपात्र होते हैं और अपने लिये काई संरक्षक नहीं पाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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