चतुरशीत्यधिकशततम (184) अध्याय: द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: चतुरशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद
पाण्डुनन्दन महात्मा युधिष्ठिर के इस प्रकार आदेश देने पर वे सब वीर द्रोणाचार्य के वध की इच्छा से वेगपूर्वक उन पर टूट पड़े। उन समस्त पाण्डव सैनिकों को पूरे उद्योग के साथ सहसा आक्रमण करते देख शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य ने समरभूमि में आगे बढ़कर उनका सामना किया। उस समय द्रोणाचार्य के जीवन की रक्षा चाहते हुए राजा दुर्योधन ने अत्यन्त कुपित हो पूरे प्रयत्न के साथ पाण्डवों पर धावा किया। तदनन्तर एक दूसरे को लक्ष्य करके गर्जते हुए पाण्डव तथा कौरव योद्धाओं में पुनः युद्ध आरम्भ हो गया। वहाँ जितने वाहन और सैनिक थे, वे सभी थक गये थे। महाराज! युद्ध में अत्यन्त थके हुए महारथी योद्धा निद्रा से अंधे हो रहे थे, अतः संग्राम में कोई चेष्टा नहीं कर पाते थे। यह तीन पहर की रात उनके लिये सहस्रों प्रहरों की रात्रि के समान घोर, भयानक एवं प्राणहारिणी प्रतीत होती थी। वहाँ बाणों की चोट सहते और विशेषतः क्षत-विक्षत होते हुए निद्रान्ध सैनिकों की आधी रात बीत गयी। उस समय आपकी और शत्रुओं की सेना के समस्त क्षत्रिय उत्साहहीन एवं दीनचित्त हो गये थे, उनके हाथों से अस्त्र और बाण गिर गये थे। वे उस समय अच्छी तरह युद्ध नहीं कर पा रहे थे, तो भी विशेषतः लज्जाशील होने के कारण अपने धर्म पर दृष्टि रखते हुए अपनी सेना छोड़कर जा न सके। भारत! दूसरे बहुत से सैनिक अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़कर नींद से अन्धे होकर सो रहे थे। कुछ लोग रथों पर, कुछ हाथियों पर और कुछ लोग घो़ड़ों पर ही सो गये थे। नरेश्वर! नींद से बेसुध होने के कारण वे किसी भी चेष्टा को समझ नहीं पाते थे और उन्हें दूसरे योद्धा समरांगण में यमलोक भेज देते थे। दूसरे सैनिक शत्रुओं को स्वप्न में पड़कर अत्यन्त बेसुध हुए देख उन्हें मार बैठते थे। कुछ लोग उस महासमर में निद्रान्ध होकर नाना प्रकार की बातें कहते हुए कभी अपने आप पर ही प्रहार कर बैठते थे, कभी अपने पक्ष के ही लोगों को मार डालते थे और कभी शत्रुओं का भी वध करते थे। महाराज! हमारे पक्ष के भी बहुत से सैनिक शत्रुओं के साथ युद्ध करना है, ऐसा समझकर खड़े थे, परंतु नींद से उनकी आँखें लाल हो गयी थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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