महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 326 श्लोक 1-18

षड्-विंशत्यधिकत्रिशततम (326) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षड्-विंशत्यधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


राजा जनक के क्षरा शुकदेवजी कर पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान करते हुए ब्रह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति होने के बाद अन्य तीनों आश्रमों की आवश्यकता का प्रतिपादन करना तथा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन

भीष्म जी कहते हैं - भारत! तदनन्तर मन्त्रियों सहित राजा जनक अनतःपुर की समसत स्त्रियों और पुरोहित को आगे करके आदस तथा नाना प्रकार के रत्नों की भेंट लिये मस्तक पर अध्र्यपात्र रखकर गुरुपुत्र शुकदेव जी के पास आये। उस समय जिसे पुरोहित ने ले रखा था, वह सर्वतोभद्र नामक बहुरत्नजटित आसन, जिसपर मूल्यवान् बिछौने बिछे हुए थे, उनके हाथ से अपने हाथ में लेकर राजा जनक ने गुरुपुत्र शुकदेव को समर्पित किया। वह आस समृद्धि से समपन्न था। व्यास पुत्र शुकदेव जब उस आसन पर विराजमान हुए, तब राजा जनक ने शास्त्र के अनुसार उनका पूजन आरम्भ किया। पहले पाद्य और अध्र्य आदि निवेदन करके राजा ने उन्हें एक गौ प्रदान की। द्विजश्रेष्ठ शुकदेवजी ने राजा जनक की ओर से प्राप्त हुई वह मन्त्रयुक्त सविधि पूजा स्वीकार की। पूजा ग्रहण करने के पश्चात् गोदान स्वीकार करके राजा को आदर देते हुए महातेजस्वी शुक ने उनका सदा बना रहले वाला कुशल-समाचार पूछा। राजेन्द्र! सेवकों सहित राजा के आरोग्य का समाचार भी उन्होंने पूछा। फिर उनकी आज्ञा ले राजा अपने अनुचरवर्ग के साथ वहाँ हाथ जोड़े हुए भूमि पर ही बैठ गये। राजा का हृदय तो उदार था ही, उनका कुल भी परम उदार था। उन पृथ्वीपति नरेश ने व्यासनन्दन शुक से उनके कुशल-मंगल की जिज्ञासा करके पूछा- ‘ब्रह्मण! किस निमित्त से यहाँ आपका शुभागमन हुआ है ?’

शुकदेव जी ने कहा- राजन्! आपका कल्याण हो। मेरे पिताजी ने मुझसे कहा है कि मेरे यजमान राजा जनक के द्वारा शुकदेवजी का पूजनलोकप्रसिद्ध विदेहराज जनक मोक्षधर्म के विशेषज्ञ हैं। यदि प्रवृत्ति या निवृत्ति-धर्म के विषय में तुम्हारे हृदय में कोई संदेह हो तो तुरंत ही उनके पास चले जाओ। वे तुम्हारी सारी शंकाओं का समाधान कर देंगे। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ नरेश! पिता की इस आज्ञा से ही मैं यहाँ आपके पास कुछ पूछने के लिये आया हूँ। आप मेरे प्रश्नों का यथावत् उत्तर दें। ब्राह्मण का कर्तव्य क्या है ? मोक्ष नामक पुरुषार्थ का क्या स्वरूप है ? उस मोक्ष को ज्ञान से अथवा तपस्या से किस साधन से प्राप्त किया जा सकता है ?।

जनक ने कहा- तात! ब्राह्मण को जन्म से लेकर जो-जो कर्म करने चाहिये, उनको सुनिये- यज्ञोपवीत संस्कार हो जाने के बाद ब्राह्मण-बालक को वेदाध्ययन में तत्पर होना चाहिये। प्रभो! तपस्या, गुरु की सेवा तथा ब्रह्मचर्य का पालन- इन तीन कर्मों के साथ-साथ वेदाध्ययन का कार्य सम्पन्न करना चाहिये। हवन कर्म द्वारा देवताओं के और तर्पण द्वारा वह पितरों के ऋण से मुक्त होने का यत्न करे। किसी के दोष न देखे और संयम पूर्वक रहकर वेदाध्ययन समाप्त करने के पश्चात् गुरु को दक्षिणा दे और उनकी आज्ञा लेकर समावर्तन-संस्कार के पश्चात् घर को लौटे। घर आने पर विवाह करके गार्हस्थ्य धर्म का पालन करे और अपनी ही स्त्री के प्रति अनुराग रखे। दूसरों के दोष न देखकीर सबके साथ यथोचित् बर्ताव करे और अग्नि स्थापना के पश्चात् प्रतिदिन अग्निहोत्र करता रहे। वहाँ पुत्र-पौत्र उत्पन्न करके पुत्र को गार्हस्थ्य धर्म का भार सौंपकर वन में जा वानप्रस्थ-आश्रम में रहे। उस समय भी शास्त्रविधि के अनुसार उन्हीं गार्हपत्य आदि अग्नियों की आराधना करते हुए अतिथियों का प्रेम पूर्वक सत्कार करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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