महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 306 श्लोक 1-13

षडधिकत्रिशततम (306) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षडधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

योग और सांख्‍य के स्‍वरूप का वर्णन तथा आत्‍मा ज्ञान से मुक्ति

जनक ने पूछा- मुनिश्रेष्‍ठ! आपने क्षरको अनेक रूप और अक्षर को एकरूप बताया; किंतु इन दोनों के तत्त्व का जो निर्णय किया गया है, उसे मैं अब भी संदेह की दृष्टिसे ही देखता हूँ। निष्‍पाप महर्षे! जिसे अज्ञानी पुरुष (अनेक रूपमें) और ज्ञानी पुरुष एक रूप में जानते हैं, उस परमात्‍मा का तत्‍व मैं अपनी स्‍थूल बुद्धि के कारण समझ नहीं पाता हूँ। मेरे उस कथन में तनिक भी संशय नहीं है। अनघ! यद्यिप आपने क्षर और अक्षर को समझाने के लिये अनेक प्रकार की युक्तियाँ बतायी हैं तथापि मेरी बुद्धि अस्थिर होने के कारण मैं उन सारी युक्तियों को मानो भूल गया हूँ। इसलिये इस नानात्‍व और एकत्‍व–रूप दर्शन को मैं पुन: सुनना चाहता हूँ। बुद्ध (ज्ञानवान्) क्‍या है? अप्रतिबुद्ध (ज्ञानहीन) क्‍या है? तथा बुद्धयमान (ज्ञेय) क्‍या है? यह ठीक-ठीक बताइये। भगवन् मैं विद्या, अविद्या, अक्षर और क्षर तथा सांख्‍य और योग को पृथक्-पृथक् पूर्णरूप से समझना चाहता हूँ।

वसिष्‍ठ जी ने कहा— महाराज! तुम जो-जो बातें पूछ रहे हो, मैं उन सबका भली-भाँति उत्‍तर दूँगा। इस समय योगसम्‍बन्‍धी कृत्‍य का पृथक् ही वर्णन कर रहा हूँ, सुनो। योगियों के लिये प्रधान कर्तव्‍य है ध्‍यान। वही उनका परम बल है। योग के विद्वान् उस ध्‍यान को दो प्रकार का बतलाते हैं— एक तो मन की एकग्रता और दूसरा प्राणायाम। प्राणायाम के भी दो भेद हैं—सगुण और निर्गुण। इनमें से जिस प्राणायाम में मन का सम्‍बन्‍ध सगुण के साथ रहता है, वह सगुण प्राणायाम है और जिसमें मन का सम्‍बन्‍ध निर्गुण के साथ रहता है, वह निर्गुण प्राणायाम है। नरेश्‍वर! मलत्‍याग, मूत्रत्‍याग और भोजन—इन तीन कार्यों में जो समय लगता है, उसमें योग का अभ्‍यास न करे। शेष समय में तत्‍परतापूर्वक योग का अभ्‍यास करना चाहिये। बुद्धिमान् योगीको चाहिये कि पवित्र हो मनके द्वारा श्रोत्र आदि इन्द्रियों को शब्‍द आदि विषयों से हटावे एवं बाईस[1] प्रकार की प्रेरणाओं द्वारा उस जरारहित जीवात्‍मा को, जिसे मनीषी पुरुषों ने आत्‍मस्‍वरूप बताया है, चौबीस तत्‍वों के समुदायरूप प्रकृति से परे परम पुरुष परमात्‍मा की और प्रेरित करे। हमने गुरुजनों के मुख से सुना है कि जो लोग इस प्रकार प्राणायाम करते हैं, वे सदा ही परब्रह्म परमात्‍मा के जानने के अधिकारी होते हैं। जिसका मन सदा ध्‍यान में संलग्‍न रहता है, ऐसे योगी के ही योग्‍य यह व्रत है अन्‍यथा बहिर्मुख चित्तवाले पुरुष के लिये यह नहीं है। यह निश्चितरूप से जानना चाहिये। योगी सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्‍त हो मिताहारी और जितेन्द्रिय बने तथा रात्रि के पहले और पिछले भाग में मन को आत्‍मा में एकाग्र करे ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जैसे घड़े में जल भरा जाता है, उसी प्रकार पादांगुष्‍ठ से लेकर मूर्धातक सम्‍पूर्ण शरीर में नासिका के छिद्रों द्वारा वायु को खींचकर भर ले। फिर ब्रह्मरन्‍ध्र (मूर्धा) से वायु को हटाकर ललाट में स्‍थापित करे। यह प्राणवायु के प्रत्‍याहार का पहला स्‍थान है। इसी प्रकार उत्‍तरोत्‍तर हटाते और रोकते हुए क्रमश: भ्रूमध्‍य, नेत्र, नासिकामूल, जिहवामूल, कण्‍ठकूप, हृदयमध्‍य, नाभिमध्‍य, मेढ्र (उपस्‍थका मूल भाग), उदर, गुदा, ऊरुमूल, ऊरुमध्‍य, जानु, चितिमूल, जंघामध्‍य, गुल्‍फ और पादांगुष्‍ठ— इन स्‍थानों में वायु को ले जाकर स्‍थापित करे। इन अट्ठारह स्‍थानों में किये हुए प्रत्‍याहारों को अट्ठारह स्‍थानो में किये हुए प्रत्‍याहारों को अट्ठारह प्रकार की प्रेरणा समझना चाहिये। इनके सिवा ध्‍यान, धारणा, समाधि तथा ‘सत्‍वपुरुषान्‍यता ख्‍याति’ (बुद्धि और पुरुष इन दोनों की भिन्‍नता का बोध)— ये चार प्रेरणाएँ और हैं। ये ही सब मिलकर बाईस प्रकार की प्रेरणाएँ कही गयी हैं।

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