महाभारत वन पर्व अध्याय 200 श्लोक 1-13

द्विशततम (200) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

Prev.png

महाभारत: वन पर्व: द्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


निन्दित दान, निन्दित जन्‍म, योग्‍य दानपात्र, श्राद्ध में ग्राह्य और अग्राह्य ब्राह्मण, दानपात्र के लक्षण, अतिथि-सत्‍कार, विविध दानों का महत्त्व, वाणी की शुद्धि, गायत्री जप, चित्तशुद्धि तथा इन्द्रिय-निग्रह आदि विविध विषयों का वर्णन


वैश्‍म्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! महाभाग मार्कण्‍डेय जी के मुख से राजर्षि इन्‍द्रद्युम्न को पुन: स्‍वर्ग की प्राप्ति वृत्तान्‍त सुनकर राजा युधिष्ठिर ने उन मुनीश्वर से फिर प्रश्न किया- ‘महामुने! किन अवस्‍थाओं में दान देकर मनुष्‍य इन्‍द्रलोक का सुख भोगता है? यह मुझे बताने की कृपा करें। मनुष्‍य बाल्‍यावस्‍था या ग्रहस्‍थाश्रम में, जवानी में अथवा बुढ़ापे में दान देने से जैसा फल पाता है? उसका मुझसे वर्णन कीजिये।'

मार्कण्‍डेय जी ने कहा- (नीचे लिखे अनुसार) चार प्रकार के जीवन व्‍यर्थ हैं और सोलह प्रकार के दान व्‍यर्थ हैं। जो पुत्र-हीन हैं, जो धर्म से बहिष्‍कृत (भ्रष्‍ट) हैं, जो सदा दूसरों की ही रसोई में भोजन किया करते हैं तथा जो केवल अपने लिये ही भोजन बनाते एवं देवता और अतिथियों को न देकर अकेले ही भोजन कर लेते हैं, उनका वह भोजन असत् कहा गया है। अत: उनका जन्‍म वृथा है। (इस प्रकार इन चार प्रकार के मनुष्‍यों का जन्‍म व्‍यर्थ है)। जो वानप्रस्थ या संन्‍यास-आश्रम से पुन: ग्रहस्‍थ-आश्रम में लौट आया हो, उसे ’आरूढ़-पतित’ कहते हैं। उसको दिया हुआ दान व्‍यर्थ होता है। अन्‍याय से कमाये हुए धन का दान भी व्‍यर्थ ही है। पतित ब्राह्मण तथा चोर को दिया हुआ दान भी व्‍यर्थ होता है। पिता आदि गुरुजन, मिथ्‍यावादी, पापी, कृतघ्न, ग्राम-पुरोहित, वेदविक्रय करने वाले, शूद्र से यज्ञ कराने वाले, नीच ब्राह्मण, शूद्रा के पति, ब्राह्मण, सांप को पकड़कर व्‍यवसाय करने वाले तथा सेवकों और स्‍त्री-समूह को दिया हुआ दान व्‍यर्थ है। इस प्रकार ये सोलह दान निष्‍फल बताये गये हैं।

जो तमोगुण से आवृत्त हो भय और क्रोधपूर्वक दान देता है, वह मनुष्‍य वैसे सब प्रकार के दानों का फल भावी जन्‍म में गर्भावस्‍था में भोगता है, अर्थात् तामसी दान करने के कारण वह उसका फल दु:ख के रूप में भोगता है तथा (श्रेष्‍ठ) ब्राह्मणों को दान देने वाला मानव उस दान का फल बड़ा होने पर (कामना के अनुसार) भोगता है।

राजन्! इसलिये मनुष्‍य को चाहिये कि वह स्‍वर्ग-मार्ग पर अधिकार पाने की इच्‍छा से सभी अवस्‍थाओं में (श्रेष्‍ठ) ब्राह्मणों को ही सब प्रकार के दान दे।[1]

युधिष्ठिर ने पूछा- महामुने! जो ब्राह्मण चारों वर्णों में से सभी के दान ग्रहण करते हैं, वे किसी विशेष धर्म का पालन करने से दूसरों को तारते और स्‍वयं भी तरते हैं।

मार्कण्‍डेय जी ने कहा- राजन्! ब्राह्मण जप, मन्‍त्र, (पाठ) होम, स्‍वाध्‍याय और वेदाध्‍ययन के द्वारा वेदमयी नौका का निर्माण करके दूसरों को भी तारते हैं और स्‍वयं भी तर जाते हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यहाँ जो पिता आदि गुरुजन, सेवक और स्त्रियों को दिया दान व्‍यर्थ कहा है, इसका अभिप्राय यह है कि माता-पिता आदि गुरुजनों की सेवा करना तथा स्‍त्री और नौकरों का पालन-पोषण करना तो मनुष्‍य का कर्तव्‍य ही है। अत: उनको देना तो अपने कर्तव्‍य का ही पालन है, इसलिये वह उनको देना दान की श्रेणी में नहीं है।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः