चतुःपंचाशत्तम (54) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुःपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद
तब दिव्य दृष्टि रखने वाले देवर्षि नारद ने दो घड़ी तक कुछ सोच विचारकर समस्त पाण्डवों तथा मरने से बचे हुए अन्य नरेशों को सम्बोधित करके कहा- भगवान श्रीकृष्ण का देवर्षि नारद एवं पाण्डवों को लेकर शरशय्यास्थित भीष्म के निकट गमन भरतनन्दन युधिष्ठिर तथा अन्य भूपालगण! मैं आप लोगों को समयोचित कर्तव्य बता रहा हूँ। आप लोग गंगानन्दन भीष्म जी से धर्म और ब्राह्मण के विषय में प्रश्न कीजिये, क्योंकि अब ये भगवान सूर्य के समान अस्त होने वाले है। भीष्मजी अपने प्राणों का परित्याग करना चाहते है; अतः आप सब लोग इनसे अपने मन की बातें पूछ लें; क्योंकि ये चारों वर्णों के सम्पूर्ण एवं विभिन्न धर्मों को जानते है। भीष्मजी अत्यन्त वृद्ध हो गये हैं और अपने शरीर का त्याग करके उत्तम लोकों में पदार्पण करने वाले है; अतः आप लोग शीघ्र ही इनसे अपने मन के संदेह पूछ लें। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! नारदजी के ऐसा कहने पर सब नरेश भीष्मजी के निकट आ गये; परंतु उन्हें उनसे कुछ पूछने का साहस नहीं हुआ। वे सभी एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। तब पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर ने ह्षीकेश की ओर लक्ष्य करके कहा- दिव्यज्ञानसम्पन्न देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण को छोडकर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो पितामह से प्रश्न कर सके। ( फिर श्रीकृष्ण से कहने लगे - ) मधुसूदन! यदुश्रेष्ठ! आप ही पहले वार्तालाप आरम्भ कीजिये। तात! आप ही हम सब लोगों में सम्पूर्ण धर्मों के श्रेष्ठ ज्ञाता है। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर अपनी मर्यादा कभी च्युत न होने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्जय भीष्मजी के निकट जाकर इस प्रकार बातचीत की। भगवान श्रीकृष्ण बोले- नृपश्रेष्ठ भीष्मजी! आपकी रात सुख से बीती न? क्या आपको सभी ज्ञातव्य विषयों का सस्पष्ट रूप से दर्शन कराने वाली निर्मल बुद्धि प्राप्त हो गयी? निष्पाप भीष्म! क्या आपके अन्तः करण में सब प्रकार के ज्ञान प्रकाशित हो रहे? आपके हद्य में ग्लानि तो नहीं है? आपका मन व्याकुल तो नहीं हो रहा है? भीष्म जी बोले- वृष्णिनन्दन! आपकी कृपा से मेरे शरीर की जलन, मन का मोह, थकावट, विकलता, ग्लानि तथा रोग- ये सब तत्काल दूर हो गये थे। परम तेजस्वी पुरुषोतम! अब मैं हाथ पर रखे हुए फल की भाँति भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों की सभी बातें स्पष्ट रूप से देख रहा हूँ। अच्युत! वेदों में जो धर्म बताये गये है तथा वेदान्तों ( उपनिषदों )- द्वारा जिनको जाना गया है, उन सब धर्मों को मैं आपके वरदान के प्रभाव से प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। जनार्दन! शिष्ट पुरुषों ने जिस धर्म का उपदेश किया है, वह भी मेरे हद्य में स्फुरित हो रहा है। देश, जाति और कुल के धर्मों का भी इस समय मुझे पूर्ण ज्ञान है। चारों आश्रमों के धर्मों में जो सारभूत तत्त्व है, वह भी मेरे हद्य में प्रकाशित हो रहा है। केशव! इस समय मैं सम्पूर्ण राजधर्मों को भी भलीभाँति जानता हूँ। जनार्दन! जिस विषय में जो कुछ भी कहने योग्य बात है, वह सब मैं कहूँगा। आपकी कृपा से मेरे हद्य में निर्मल मन और कल्याणमयी बुद्धि का आवेश हुआ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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