द्वादशाधिकशततम (112) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: द्वादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर शान्तनुनन्दन परमबुद्धिमान् भीष्म जी ने यशस्वी राजा पाण्डु के द्वितीय विवाह के लिये विचार किया। वे बूढ़े मन्त्रियों, ब्राह्मणों, महर्षियों, तथा चतुरंगिणी सेना के साथ मद्रराज की राजधानी में गये। वाहीक शिरोमणि राजा शल्य भीष्मजी का आगमन सुनकर उनकी अगवानी के लिये नगर से बाहर आये और यथोचित स्वागत-सत्कार करके उन्हें राजधानी के भीतर ले गये। वहाँ उनके लिये सुन्दर आसन, पाद्य, अर्ध्य तथा मधुपर्क अर्पण करके मद्रराज ने भीष्म जी से उनके आगमन का प्रयोजन पूछा। तब कुरुकुल का भार बहन करने वाले भीष्म जी ने मद्रराज से इस प्रकार कहा- ‘शत्रुदमन! तुम मुझे कन्या के लिये आया समझो। सुना है, तुम्हारी एक यशस्विनी बहिन है, जो बड़े साधु स्वभाव की है; उसका नाम माद्री है। मैं उस यशस्विनी माद्री का अपने पाण्डु के लिये वरण करता हूँ। राजन्! तुम हमारे यहाँ सम्बन्ध करने में सर्वथा योग्य हो और हम भी तुम्हारे योग्य हैं। नरेश्वर! यों विचार कर तुम हमें विधिपूर्वक अपनाओ’। भीष्म जी के यों कहने पर मद्रराज ने उत्तर दिया- ‘मेरा विश्वास है कि आप लोगों से श्रेष्ठ वर मुझे ढूंढने से भी नहीं मिलेगा। परंतु इस कुल में पहले के श्रेष्ठ राजाओं ने कुछ शुल्क लेने का नियम चला दिया है। वह अच्छा हो या बुरा, मैं उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। यह बात सब पर प्रकट है, नि:संदेह आप भी इसे जानते होंगे। साधुशिरोमणे! इस दशा में आपके लिये यह कहना उचित नहीं है कि मुझे कन्या दे दो। वीर! वह हमारा कुलधर्म है और हमारे लिये वही परम प्रमाण है। शत्रुदमन! इसीलिये मैं आपसे निश्चित रुप से यह नहीं कह पाता कि कन्या दे दूंगा’। यह सुनकर जनेश्वर भीष्म जी ने मद्रराज को इस प्रकार उत्तर दिया- 'राजन्! यह उत्तम धर्म है। स्वयं स्वयम्भू ब्रह्मा जी ने इसे धर्म कहा है। यदि तुम्हारे पूर्वजों ने इस विधि को स्वीकार कर लिया है तो इसमें कोई दोष नहीं है। शल्य! साधु पुरुषों द्वारा सम्मानित तुम्हारी कुल मार्यादा हम सबको विदित है’। यह कहकर महातेजस्वी भीष्म जी ने राजा शल्य को सोना और उसके बने हुए आभूषण तथा सहस्रों विचित्र प्रकार के रत्न भेंट किये। बहुत-से हाथी, घोड़े, रथ, वस्त्र, अलंकार और मणि-मोती और मूंगे भी दिये। वह सारा धन लेकर शल्य का चित्त प्रसन्न हो गया। उन्होंने अपनी बहिन को वस्त्राभूषणों से विभूषित करके राजा पाण्डु के लिये कुरुश्रेष्ठ भीष्म जी को सौंप दिया। परम बुद्धिमान् गंगानन्दन भीष्म माद्री को लेकर हस्तिनापुर में आये। तदनन्तर श्रेष्ठ ब्राह्मणों के द्वारा अनुमोदित शुभ दिन और सुन्दर मुहूर्त आने पर राजा पाण्डु ने माद्री का विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। इस प्रकार विवाह-कार्य सम्पन्न हो जाने पर कुरुनन्दन राजा पाण्डु ने अपनी कल्याणमयी भार्या को सुन्दर महल में ठहराया। राजाओं में श्रेष्ठ महाराज पाण्डु ने अपनी दोनों पत्नियों कुन्ती और माद्री के साथ यथेष्ट विहार करने लगे। जनमेजय! कुरुवंशी राजा पाण्डु तीस रात्रियों तक विहार करके समूची पृथ्वी पर विजय प्राप्त करने की इच्छा लेकर राजधानी से बाहर निकले। उन्होंने भीष्म आदि बड़े-बूढ़ों के चरणों में मस्तक झुकाया। कुरुनन्दन धृतराष्ट्र तथा अन्य श्रेष्ठ कुरुवंशियों को प्रणाम करके उन सब की आज्ञा ली और उनका अनुमोदन मिलने पर मंगलाचार युक्त आशीर्वादों से अभिनन्दित हो हाथी, घोड़ों तथा रथ समुदाय से युक्त विशाल सेना के साथ प्रस्थान किया। राजापाण्डु देवकुमार के सामन तेजस्वी थे। उन्होंने इस पृथ्वी पर विजय पाने की इच्छा से हृष्ट-पुष्ट सैनिकों के साथ अनेक शत्रुओं पर धावा किया। कौरवकुल के सुयश को बढ़ाने वाले, मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी राजा पाण्डु ने सबसे पहले पूर्व के अपराधी दशार्णों[1] पर धावा करके उन्हें युद्ध में परास्त किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विन्ध्यपर्वत के पूर्व-दक्षिण की ओर स्थित उस प्रदेश का प्राचीन नाम दशार्ण है, जिससे होकर धसान नदी बहती है। विदिशा (आधुनिक भिलसा) इसी प्रदेश की राजधानी थी।
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