महाभारत सभा पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-16

विंश (20) अध्‍याय: सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: विंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


श्रीकृष्ण कहते हैं- धर्मराज! जरासंध के मुख्य सहायक हंस और डिम्भक यमुना जी में डूब मरे। कंस भी अपने सेवकों और सहायकों सहित काल के गाल में चला गया। अब जरासंध के नाश का यह उचित अवसर आ पहुँचा है। युद्ध में तो सम्पूर्ण देवता और असुर भी उसे जीत नहीं सकते, अतः मेरी समझ में यही आता है कि उसे बाहुयुद्ध के द्वारा जीतना चाहिये। मुझ में नीति है, भीमसेन में बल है और अर्जुन हम दोनों की रक्षा करने वाले हैं; उसी प्रकार हम तीनों मिलकर जरासंध के वध का काम पूरा कर लेंगे। जब हम तीनों एकान्त में राजा जरासंध से मिलेंगे, तब वह हम तीनों में से किसी एक के साथ द्वन्द्व युद्ध करना स्वीकार कर लेगा; इस में संदेह नहीं है। अपमान के भय से, बड़े योद्धा भीमसेन के साथ लड़ने के लोभ से तथा अपने बाहुबल से घमंड में चूर होने से जरासंध निश्चय ही भीमसेन के साथ युद्ध करने को उद्यत होगा। जैसे उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् के विनाश के लिये एक ही यमराज काफी हैं, उसी प्रकार महाबली महाबाहु भीमसेन जरासंध के वध के लिये पर्याप्त हैं। राजन्! यदि आप मेरे हृदय को जानते हैं और यदि आपका मुझ पर विश्वास है तो भीमसेन और अर्जुन को शीघ्र ही धरोहर के रूप में मुझे दे दीजिये।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भगवान् के ऐसा कहने पर वहाँ खड़े हुए भीमसेन और अर्जुन का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उस समय उन दोनों की ओर देखकर युधिष्ठिर ने इस प्रकार उत्तर दिया।

युधिष्ठिर बोले- अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले शत्रुसूदन अच्युत! आप ऐसी बात न कहें, न कहें। आप सब पाण्डवों के स्वामी हैं, रक्षक हैं; हम सब लोग आपकी शरण में हैं। गोविन्द! आप जैसा कहते हैं, वह सब ठीक है। जिन की राज्य लक्ष्मी विमुख हो चुकी है, उनके सम्मुख आप आते ही नहीं हैं। आप की आज्ञा के अनुसार चलने मात्र से मैं यह मानता हूँ कि जरासंध मारा गया। समस्त राजा उसकी कैद से छुटकारा पा गये और मेरा राजसूय यज्ञ भी पूरा हो गया। जगन्नाथ! पुरुषोत्तम! आप सावधान होकर वही उपाय कीजिये, जिससे यह कार्य शीघ्र ही पूरा हो जाय। जैसे धर्म, काम और अर्थ से रहित रोगातुर मनुष्य अत्यन्त दुखी हो जीवन से हाथ धो बैठता है, उसी प्रकार मैं भी आप तीनों के बिना जीविन नहीं रह सकता। श्रीकृष्ण के बिना अर्जुन और पाण्डुपुत्र अर्जुन के बिना श्रीकृष्ण नहीं रह सकते। इन दोनों कृष्णनामधारी वीरों के लिये लोक में कोई भी अजेय नहीं है; ऐसा मेरा विश्वास है। यह बलवानों में श्रेष्ठ महायशस्वी कान्तिमान् वीर भीमसेन भी आप दोनों के साथ रहकर क्या नहीं कर सकता? चतुर सेनापतियों द्वारा अच्छी तरह संचालित की हुई सेना उत्तम कार्य करती है, अन्यथा उस सेना को अंधी और जड़ कहते हैं; अतः नीतिनिपुण पुरुषों द्वारा ही सेना का संचालन होना चाहिये।  

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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