चतुरशीतितम (84) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुरशीतितम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद
बृहस्पति जी ने कहा-इन्द्र! जिसका नाम एक ही पद का है, वह एकमात्र वस्तु है सान्त्वना (मधुर वचन बोलना)। उसका भलीभाँती आचरण करने वाला पुरुष समस्त प्राणियों का प्रिय होकर महान यश प्राप्त कर लेता है। शक्र! यही एक वस्तु सम्पूर्ण जगत् के लिये सुखदायक है। इसको आचरण में लाने वाला मनुष्य सदा समस्त प्राणियों का प्रिय होता है। जो मनुष्य सदा भौंहें टेढ़ी किये रहता है, किसी से कुछ बातचीत नहीं करता, वह शान्तभाव (मृदुभाषी होने के गुण) को न अपनाने के कारण सब लोगों के द्वेष का पात्र हो जाता है। जो सभी को देखकर पहले ही बात करता है और सबसे मुस्करा कर ही बोलता है, उस पर सब लोग प्रसन्न रहते हैं। जैसे बिना व्यंजन (साग - दाल आदि) का भोजन मनुष्यों को संतुष्ट नहीं कर सकता, उसी प्रकार मधुर वचन बोले बिना दिया हुआ दान भी प्राणियों को प्रसन्न नहीं कर पाता है। शक्र! मधुर वचन बोलने वाला मनुष्य लोगों की कोई वस्तु लेकर भी अपनी मधुर वाणी द्वारा इस सम्पूर्ण जगत को वश में कर लेता है। अतः किसी को दण्ड देने की इच्छा रखने वाले राजा को उससे सान्त्वनापूर्ण मधुर वचन ही बोलना चाहिये। ऐसा करके वह अपना प्रयोजन तो सिद्ध कर लेता है और उससे कोई मनुष्य उद्विग्र भी नहीं होता है। यदि अच्छी तरह से सान्त्वनापूर्ण, मधुर एवं स्नेहयुक्त वचन बोला जाय और सदा सब प्रकार से उसी का सेवन किया जाय तो उसके समान वशीकरण का साधन इस जगत में निःसंदेह दूसरा कोई नहीं है। भीष्म जी कहते हैं- कुरुनन्दन! अपने पुरोहित बृहस्पति के ऐसा कहने पर इन्द्र ने सब कुछ उसी तरह किया। इसी प्रकार तुम भी इस सान्त्वनापूर्ण वचन को भलीभाँती आचरण में लाओ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वं के अन्तर्गत राजधर्मांनुशासनपर्वं में इन्द्र और बृहस्पति का संवादविषयक चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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