महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 184 श्लोक 1-23

चतुरशीत्‍यधिकशततम (184) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: चतुरशीत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद

भीष्‍म तथा परशुरामजी का एक दूसरे पर शक्ति और ब्रह्मस्त्र का प्रयोग

  • भीष्‍मजी कहते हैं- भारत! तदनन्तर रात बीतने पर जब मेरी नींद खुली, तब उस स्वप्न की बात को सोचकर मुझे बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ। (1)
  • भारत! तदनन्तर मेरा और परशुरामजी का भयंकर युद्ध छिड़ गया, जो समस्त प्राणियों के रोंगटे खडे़ कर देने वाला और अद्भुत था। (2)
  • उस समय भृगुनन्दन परशुरामजी ने मुझ पर बाणों की झड़ी लगा दी। भारत! तब मैंने अपने सायक समूहों से उस बाण वर्षा को रोक दिया। (3)
  • तब महातपस्वी परशुराम पुन: मुझपर अत्यन्त कुपित हो गये। पहले दिन का भी कोप था ही। उससे प्ररित होकर उन्होंने मेरे ऊपर शक्ति चलायी। (4)
  • उसका स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान भयंकर था। उसकी प्रभा यमदण्‍ड़ के समान थी और उस संग्राम में अग्नि के समान प्रज्वलित हुई वह शक्ति मानो सब ओर से रक्त चाट रही थी। (5)
  • भरतश्रेष्‍ठ! कुरुकुलरत्न! फिर आकाशवर्ती नक्षत्र के समान प्रकाशित होने वाली उस शक्ति ने तुरंत आकर मेरे गले की हंसली पर आघात किया। (6)
  • लाल नेत्रों वाले महाबाहु दुर्योधन! परशुरामजी के द्वारा किये हुए उस गहरे आघात से भयंकर रक्त की धारा वह चली। मानो पर्वत से गैरिक धातुमिश्रित जल का झरना झर रहा हो। (7)
  • तब मैंने भी अत्यन्त कुपित हो सर्प विष के समान भयंकर मृत्युतुल्य बाण लेकर परशुरामजी के ऊपर चलाया। (8)
  • उस बाण ने विप्रवर वीर परशुरामजी के ललाट में चोट पहुँचायी। महाराज! उसके कारण वे शिखरयुक्त पर्वत के समान शोभा पाने लगे। (9)
  • तब उन्होंने भी रोष में आकर काल और यम के समान भयंकर शत्रुनाशक बाण को हाथ में ले धनुष को बलपूर्वक खींचकर उसके ऊपर रखा। (10)
  • राजन! उसका चलाया हुआ वह भयंकर बाण फुफकारते हुए सर्प के समान सनसनाता हुआ मेरी छाती पर आकर लगा। उससे लहूलुहान होकर मैं पृथ्‍वी पर गिर पड़ा। (11)
  • पुन: चेत में आने पर मैंने बुद्धिमान परशुरामजी के ऊपर प्रज्वलित वज्र के समान एक उज्ज्वल शक्ति चलायी। (12)
  • वह शक्ति उन ब्राह्मण शिरोमणि की दोनों भुजाओं के ठीक बीच में जाकर लगी। राजन! इससे वे विह्वल हो गये और उनके शरीर में कंपकंपी आ गयी। (13)
  • तब उनके महातपस्वी मित्र अकृतव्रण ने उन्हें हृदय से लगाकर सुन्दर वचनों द्वारा अनेक प्रकार से आश्‍वासन दिया। (14)
  • तदनन्तर महाव्रती परशुरामजी धैर्ययुक्त हो क्रोध और अमर्ष में भर गये और उन्होंने परम उत्तम ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। (15)
  • तब उस अस्त्र का निवारण करने के लिये मैंने भी उत्तम ब्रह्मास्त्र का ही प्रयोग किया। मेरा वह अस्त्र प्रलयकाल जैसा दृश्य उपस्थित करता हुआ प्रज्वलित हो उठा। (16)
  • भरतवंश शिरोमणे! वे दोनों ब्रह्मास्त्र मेरे तथा परशुरामजी के पास न पहुँचकर बीच में ही एक दूसरे से भिड़ गये। (17)
  • प्रजानाथ! फिर तो आकाश में केवल आग की ही ज्वाला प्रकट होने लगी। इससे समस्त प्राणियों को बड़ी पीड़ा हुई। (18)
  • भारत! उन ब्रह्मास्त्रों के तेज से पीड़ित होकर ऋषि, गन्धर्व तथा देवता भी अत्यन्त संतप्त हो उठे। (19)
  • फिर तो पर्वत, वन और वृक्षों सहित सारी पृथ्‍वी डोलने लगी। भूतल के समस्त प्राणी संतप्त हो अत्यन्त विषाद करने लगे। (20)
  • राजन! उस समय आकाश जल रहा था। सम्पूर्ण दिशाओं में धूम व्याप्त हो रहा था। आकाशचारी प्राणी भी आकाश में ठहर न सके। (21)
  • तदनन्तर देवता, असुर तथा राक्षसों सहित सम्पूर्ण जगत में हाहाकार मच गया। भारत! ‘यही उपयुक्त अवसर है’ ऐसा मानकर मैंने तुरंत ही प्रस्वापनास्त्र को छोड़ने का विचार किया। फिर तो उन ब्रह्मवादी वसुओं के कथनानुसार उस विचित्र अस्त्र का मेरे मन में स्मरण हो आया। (22-23)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपख्‍यानपर्व में परस्पर ब्रह्मास्त्रप्रयोगविष्‍यक एक सौ चौरासीवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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