महाभारत वन पर्व अध्याय 5 श्लोक 1-16

पंचम (5) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍य पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: पंचम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


पाण्डवों का काम्यकवन में प्रवेश और विदुर जी का वहाँ जाकर उनसे मिलना और बातचीत करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भरतवंशशिरोमणि पाण्डव वनवास के लिये गंगा के तट से अपने साथियों सहित कुरुक्षेत्र गये। उन्होंने क्रमशः सरस्वती, दृषद्वती और यमुना नदी का सेवन करते हुए एक वन से दूसरे वन में प्रवेश किया। इस प्रकार वे निरन्तर पश्चिम की दिशा की ओर बढ़ते गये। तदनन्तर सरस्वती-तट तथा मरुभूमि एवं वन्य प्रदेशों की यात्रा करते हुए उन्होंने काम्यकवन का दर्शन किया, जो ऋषि-मुनियों के समुदाय को बहुत ही प्रिय था।

भारत! उस समय वन में बहुत-से पशु-पक्षी निवास करते थे। वहाँ मुनियों ने उन्हें बिठाया और बहुत सांत्वना दी। फिर वे वीर पाण्डव वहीं रहने लगे। इधर विदुर जी सदा पाण्डवों को देखने के लिए उत्सुक रहा करते थे। वे एकमात्र रथ के द्वारा काम्यकवन में गये, जो वनोचित सम्पत्तियों से भरा-पूरा था। शीघ्रगामी अश्वों द्वारा खींचे जाने वाले रथ से काम्यकवन में पहुँचकर विदुर जी ने देखा धर्मात्मा युधिेष्ठिर एकान्त प्रदेश में द्रौपदी, भाइयों तथा ब्राह्मणों के साथ बैठे हैं। सत्य-प्रतिज्ञ राजा युधिष्ठिर ने जब बड़ी उतावली के साथ विदुर जी को अपने निकट आते देखा, तब भाई भीमसेन से कहा- 'ये विदुर जी हमारे पास आकर न जाने क्या कहेंगें। ये शकुनि के कहने से फिर जुआ खेलने के लिये बुलाने तो नहीं आ रहे हैं। कहीं नीच शकुनि हमें फिर द्यूतसभा में बुलाकर हमारे आयुधों को तो नहीं लेगा। भीमसेन आओ, कहकर यदि कोई मुझे (युद्ध तथा द्यूत के लिए ) बुलावे, तो मैं पीछे नहीं हट सकता। ऐसी दशा में गाण्डीव धनुष किसी तरह जुए में हार गए, तो हमारी राज्य-प्राप्ति संशय में पड़ जायेगी।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! तदनन्तर सब पाण्डवों ने उठकर विदुर जी की अगवानी की। उनके द्वारा किया हुआ यथोचित स्‍वागत-ग्रहण करके अजमीगढ़वंशी विदुर पाण्‍डवों से मिले। विदुर जी के आदर-सत्कार पाने पर नरश्रेष्ठ पाण्डवों ने उनसे वन में आने का कारण पूछा। उनके पूछने पर विदुर जी ने श्रीअम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने जैसा बर्ताव किया था, वह सब विस्तारपूर्वक कह सुनाया।

विदुर जी बोले- अजातशत्रो! राजा धृतराष्ट्र ने मुझे अपना रक्षक समझकर बुलाया और मेरा आदर करके कहा- 'विदुर! आज की परिस्थिति में समभाव रखकर तुम ऐसा कोई उपाय बताओ, जो मेरे और पाण्डवों के लिये हितकर हो। तब मैंने भी ऐसी बातें बतायीं, जो सर्वथा उचित तथा कौरव वंश एवं धृतराष्ट्र के लिए भी हितकर और लाभदायक थीं। वह बात उनको नहीं जंची और मैं उसके सिवा दूसरी कोई बात उचित नहीं समझता था। पाण्डवों! मैंने दोनों पक्षों के लिये परम कल्याण की बात बतायी थी, परंतु अम्बिकानन्दन महाराज धृतराष्ट्र ने मेरी वह बात नहीं सुनी। जैसे रोगी को हितकर भोजन अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार राजा धृतराष्ट्र को मेरी कही हुई हितकर बात पसंद नहीं आती। अजातशत्रो! क्षत्रियों के घर की दुष्टा स्त्री श्रेय के मार्ग पर नहीं लायी जा सकती, उसी प्रकार राजा धृतराष्ट्र को कल्याण के मार्ग पर लाना असम्भव है। जैसे कुमारी कन्या को साठ वर्ष का बूढ़ा पति अच्छा नहीं लगता है, उसी प्रकार भरतश्रेष्ठ धृतराष्ट्र को मेरी कही हुई बात निश्चय ही नहीं रुचती। राजन! राजा धृतराष्ट्र कल्याणकारी उपाय नहीं ग्रहण करते हैं, अतः यह निश्चय जान पड़ता है कि कौरव कुल का विनाश अवश्यम्भावी है। जैसे कमल के पत्ते पर डाला हुआ जल ठहर नहीं सकता, उसी प्रकार कही हुई हितकर बात राजा धृतराष्ट्र के मन में स्थान नहीं पाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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