महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-16

त्रयोदश (13) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: त्रयोदश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन का युधिष्ठिर को आश्‍वासन देना तथा युद्ध में द्रोणाचार्य का पराक्रम


  • संजय कहते हैं- राजन! जब द्रोणाचार्य ने कुछ अन्‍तर रखकर राजा युधिष्ठिर को कैद करने की प्रतिज्ञा कर ली, तब आपके सैनिकों ने युधिष्ठिर के पकड़े जाने का उद्योग सुनकर जोर-जोर से सिंहनाद करना और भुजाओं पर ताल ठोकना आरम्‍भ किया। भरतनन्‍दन! उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने शीघ्र ही अपने विश्‍वसनीय गुप्‍तचरों द्वारा यथा योग्‍य सारी बाते पूर्णरूप से जान लीं कि द्रोणाचार्य क्‍या करना चाहते हैं। (1-2)
  • तब धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों को और दूसरे राजाओं को सब ओर से बुलवाकर धनंजय अर्जुन से कहा- 'पुरुषसिंह! आज द्रोण क्‍या करना चाहते हैं, यह तुमने सुना ही होगा? (3-4)
  • अत: तुम ऐसी नीति बताओ, जिससे उनकी इच्‍छा सफल न हो। शत्रुसूदन द्रोण ने कुछ अन्‍तर रखकर प्रतिज्ञा की है। (5)
  • महाधनुर्धर अर्जुन! वह अन्‍तर उन्‍होंने तुम्‍हीं पर डाल रक्‍खा है। अत: महाबाहो! आज तुम मेरे समीप रहकर ही युद्ध करो, जिससे दुर्योधन द्रोणाचार्य से अपने इस मनोरथ को पूर्ण न करा सके। (6)
  • अर्जुन बोले– राजन! जिस प्रकार मेरे लिये आचार्य का कभी वध न करना कर्तव्‍य है, उसी प्रकार किसी भी दशा में आपका परित्‍याग करना मुझे अभीष्‍ट नहीं है। (7)
  • पाण्‍डुनन्‍दन! इस नीति के अनुसार बर्ताव करते हुए मैं युद्ध में अपने प्राणों का परित्‍याग कर दूँगा; परंतु किसी प्रकार भी आचार्य का शत्रु नहीं बनूँगा। (8)
  • महाराज! यह धृतराष्‍ट्रपुत्र दुर्योधन जो आपको युद्ध में कैद करके सारा राज्‍य हथिया लेना चाहता है, वह इस जगत में अपने उस मनोरथ को किसी प्रकार पूर्ण नहीं कर सकता। (9)
  • नक्षत्रों सहित आकाश फट पड़े और पृथ्‍वी के टुकड़े-टुकड़े हो जायँ, तो भी मेरे जीते-जी द्रोणाचार्य आपको पकड़ नहीं सकते; यह ध्रुव सत्‍य है। (10)
  • राजेन्‍द्र! यदि रणक्षेत्र में साक्षात वज्रधारी इन्‍द्र अथवा भगवान विष्‍णु सम्‍पूर्ण देवताओं के साथ आकर दुर्योधन की सहायता करें, तो भी मेरे जीते-जी वह आपको पकड़ नहीं सकेगा; अत: आपको सम्‍पूर्ण अस्‍त्र–शस्‍त्रधारियों में श्रेष्‍ठ द्रोणाचार्य से भय नहीं करना चाहिये। (11-12)
  • महाराज! मैं अपनी दूसरी भी निश्चल प्रतिज्ञा आपको सुनाता हूँ। मैंने कभी झूठ कहा हो, इसका स्‍मरण नहीं है। मेरी कहीं पराजय हुई हो, इसकी भी याद नहीं है और मैंने प्रतिज्ञा करके उसे तनिक भी झूठी कर दिया हो, इसका भी मुझे स्‍मरण नहीं है। (13-14)
  • संजय कहते हैं- महाराज! तदनन्‍तर पाण्‍डवों के शिविर में शंख, भेरी, मृदंग और आनक आदि बाजे बजने लगे। महात्‍मा पाण्‍डवों का सिंहनाद सहसा प्रकट हुआ। धनुष की टंकार का भयंकर शब्‍द आकाश में गूँजने लगा। (15-16)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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