महाभारत वन पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-16

द्वितीय (2) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍य पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

धन के दोष, अतिथि सत्‍कार की महत्ता तथा कल्‍याण के उपायों के विषय में धर्मराज युधिष्ठिर से ब्राह्मणों तथा शौनक जी की बातचीत

  • वैशम्‍पायनजी कहते हैं– हे राजन! जब रात बीती और प्रभात उदय हुआ तथा अनायास ही महान पराक्रम करने वाले पाण्‍डव वन की ओर जाने के लिए उद्यत हुए, उस समय भिक्षान्‍न भोजी ब्राह्मण साथ चलने के लिए उनके सामने खड़े हो गये। (1)
  • तब कुन्‍ती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने उनसे कहा- ‘ब्राह्मणों! हमारा राज्‍य, लक्ष्‍मी और सर्वस्‍व जुए में हरण कर लिया गया है। हम फल, मूल तथा अन्‍न के आहार पर रहने का निश्‍चय करके दुखी होकर वन में जा रहे हैं। वन में बहुत से दोष हैं। वहाँ सर्प बिच्छू आदि असंख्‍य भयंकर जन्‍तु हैं। (2-3)
  • ‘मैं समझता हूँ, वहाँ आप लोगों को अवश्‍य ही महान कष्‍ट का सामना करना पड़ेगा। ब्राह्मणों को दिया हुआ क्‍लेश तो देवताओं का भी विनाश कर सकता है, फिर मेरी तो बात ही क्‍या है? अत: ब्राह्मणों! आप लोग यहाँ से अपने अभीष्‍ट स्‍थान को लौट जायँ।' (4)
  • ब्राह्मणों ने कहा- राजन आपकी जो गति होगी, उसे भुगतने के लिए हम भी उद्यत हैं। हम आपके भक्त तथा उत्‍तम धर्म पर दृष्टि रखने वाले हैं। इसलिए आपको हमारा परित्‍याग नहीं करना चाहिये। (5) *देवता भी अपने भक्‍तों पर विशेषत: सदाचार परायण ब्राह्मणों पर तो अवश्‍य ही दया करते हैं। (6)
  • युधिष्ठिर बोले- विप्रगण! मेरे मन में भी ब्राह्मणों के प्रति उत्‍तम भक्ति है, किंतु यह सब प्रकार के सहायक साधनों का अभाव ही मुझे दु:खमग्‍न-सा किये देता है। जो फल-मूल एवं शहद आदि आहार जुटा कर ला सकते थे, वे ही मेरे भाई शोकजनित दु:ख से मोहित हो रहे हैं। (7-8)
  • द्रौपदी के अपमान तथा राज्‍य के अपहरण के कारण ये दु:ख से पी‍डित हो रहे हैं, अत: मैं इन्‍हें[1] अधिक क्‍लेश में डालना नहीं चाहता। (9)
  • ब्राह्मण बोले- पृथ्‍वीनाथ आपके हृदय में हमारे पालन-पोषण की चिन्‍ता नहीं होनी चाहिए। हम स्‍वयं ही अपने लिये अन्‍न आदि की व्‍यवस्‍था करके आपके साथ चलेंगे। (10)
  • हम आपके अभीष्‍ट चिन्‍तन और जप के द्वारा आप का कल्‍याण करेंगे तथा आपको सुन्‍दर-सुन्‍दर कथाएँ सुनाकर आपके साथ ही प्रसन्‍नतापूर्वक वन में विचरेंगे। (11)
  • युधिष्ठिर ने कहा- महात्‍माओं! आप का कहना ठीक है। इसमें संदेह नहीं कि मैं सदा ब्राह्मणों के साथ रहने में ही प्रसन्‍नता का अनुभव करता हूँ, किंतु इस समय धन आदि से हीन होने के कारण मैं देख रहा हूँ कि मेरे लिए यह अपकीर्ति की-सी बात है। (12)
  • आप सब लोग स्‍वयं ही आहार जुटा कर भोजन करें, यह मैं कैसे देख सकूँगा? आप लोग कष्‍ट भोगने के योग्‍य नहीं हैं, तो भी मेरे प्रति स्‍नेह होने के कारण इतना क्‍लेश उठा रहे हैं। धृतराष्‍ट्र के पापी पुत्रों को धिक्‍कार है। (13)
  • वैशम्‍पायनजी कहते हैं- राजन! इतना कहकर धर्मराज युधिष्ठिर शोकमग्‍न हो चुपचाप पृथ्‍वी पर बैठ गये। उस समय अध्‍यात्‍म विषय में रत अर्थात परमात्मचिन्‍तन में तत्‍पर विद्वान ब्राह्मण शौनक ने, जो कर्मयोग और संख्‍ययोग- दोनों ही निष्‍ठाओं के विचार में प्रवीण थे, राजा से इस प्रकार कहा। (14-15)
  • शोक के सहस्‍त्रों और भय के सैंकड़ों स्‍थान हैं। वे मूढ़ मनुष्‍य पर प्रतिदिन अपना प्रभाव डालते हैं, परंतु ज्ञानी पुरुष पर वे प्रभाव नहीं डाल सकते। (16)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आहार जुटाने का आदेश देकर

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