महाभारत वन पर्व अध्याय 77 श्लोक 1-20

सप्तसप्ततितम (77) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्तसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


नल के प्रकट होने पर विदर्भ नगर में महान् उत्सव का आयोजन, ऋतुपर्ण के साथ नल का वार्तालाप और ऋतुपर्ण का नल से अश्वविद्या सीखकर अयोध्या जाना

बृहदश्व मुनि कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर वह रात बीतने पर राजा नल वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो दमयन्ती के साथ यथा समय राजा भीम से मिले। स्नानादि से पवित्र हुए नल ने विनीत भाव से श्वशुर को प्रणाम किया। तत्पश्चात् शुभलक्षण दमयन्ती ने भी पिता की वन्दना की। राजा भीम ने बड़ी प्रसन्नता के साथ नल को पुत्र की भाँति अपनाया और नल सहित पतिव्रता दमयन्ती का यथायोग्य आदर-सत्कार करके उन्हें आश्वासन दिया। राजा नल ने उस पूजा को विधिपूर्वक स्वीकार करके अपनी ओर से भी श्वशुर का सेवा-सत्कार किया। तदनन्तर विदर्भ नगर में राजा नल को इस प्रकार आया देख हर्षोल्लास में भरी हुई जनता का महान् आनन्दजनित कोलाहल होने लगा।

विदर्भ नरेश ने ध्वजा, पताकाओं की पंक्तियों से कुण्डिनपुर को अद्भुत शोभा से सम्पन्न किया। सड़कों को खूब झाड़-बुहारकर उन पर छिड़काव किया गया था। फूलों से उन्हें इच्छी तरह सजाया गया था। पुरवासियों के द्वार-द्वार पर सुगंध फैलाने के लिये राशि-राशि फूल बिखेरे गये थे। सम्पूर्ण देव मंदिरों की सजावट और देव मूर्तियों की पूजा की गयी थी। राजा ऋतुपर्ण ने भी जब यह सुना कि बाहुक के वेष में राजा नल ही थे और अब वे दमयन्ती से मिले हैं, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने राजा नल को बुलाकर उनसे क्षमा मांगी। बुद्धिमान् नल ने भी अनेक युक्तियों द्वारा उनसे क्षमा याचना की। नल से आदर-सत्कार पाकर वक्ताओं में श्रेष्ठ एवं तत्त्वज्ञ राजा ऋतुपर्ण मुसकराते हुए मुख से बोले- ‘निषध नरेश! यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आप अपनी बिछुड़ी हुई पत्नी से मिले।’ ऐसा कहकर उन्होंने नल का अभिनन्दन किया। (और पुनः कहा-) ‘नैषध! भूपालशिरोमणे! आप मेरे घर पर जब अज्ञातवास की अवस्था में रहते थे, उस समय मैंने आपका कोई अपराध तो नहीं किया? उन दिनों यदि मैंने बिना जाने या जान-बूझकर आपके साथ अनुचित बर्ताव किये हों तो उन्‍हें आप क्षमा करे।'

नल ने कहा- 'राजन्! आपने मेरा कभी थोड़ा-सा भी अपराध नहीं किया है और यदि किया भी हो तो उसके लिये मेरे हृदय में क्रोध नहीं है। मुझे आपके प्रत्येक बर्ताव को क्षमा ही करना चाहिये। राजन्! मेरी समस्त कामनाएं वहाँ अच्छी तरह पूर्ण की गयीं और इसके कारण मैं सदा आपके यहाँ सुखी रहा। महाराज! आपके भवन में मुझे जैसा आराम मिला, वैसा अपने घर में भी नहीं मिला। आपका अश्वविज्ञान मेरे पास धरोहर के रूप में पड़ा है। राजन्! यदि आप ठीक समझें तो मैं उसे आपको देने की इच्छा रखता हूँ।' ऐसा कहकर निषधराज नल ने ऋतुपर्ण को अश्वविद्या प्रदान की।

युधिष्ठिर! ऋतुपर्ण ने भी शास्त्रीय विधि के अनुसार उनसे अश्वविद्या ग्रहण की। अश्वों का रहस्य ग्रहण करके और निषध नरेश नल को पुनः द्यूतविद्या का रहस्य समझाकर दूसरा सारथि साथ ले राजा ऋतुपर्ण अपने नगर को चले गये। राजन्! ऋतुपर्ण के चले जाने पर राजा नल कुण्डिनपुर में कुछ समय तक रहे। वह काल उन्हें थोड़े समय के समान ही प्रतीत हुआ।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत नलोपाख्यानपर्व में ऋतुपर्ण का स्वदेशगमन विषयक सतहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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