महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 24 श्लोक 1-20

चतुर्विंश (24) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

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महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: चतुर्विंश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


पांडवों तथा पुरवासियों का कुन्ती, गांधारी और धृतराष्ट्र के दर्शन करना


वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर वे समस्त पांडव दूर से ही अपनी सवारियों से उतर पड़े और पैदल चलकर बड़ी विनय के साथ राजा के आश्रम पर आये। साथ आये हुए समस्त सैनिक, राज्य के निवासी मनुष्य तथा कुरुवंश के प्रधान पुरुषों की स्त्रियाँ भी पैदल ही आश्रम तक गयीं। धृतराष्ट्र का वह पवित्र आश्रम मनुष्यों से सूना था। उसमें सब और मृगों के झुंड विचर रहे थे और केले का सुन्दर उद्यान उस आश्रम की शोभा बढ़ाता था। पांडव लोग ज्यों ही उस आश्रम में पहुँचे, त्यों ही वहाँ नियमपूर्वक व्रतों का पालन करने वाले बहुत-से तपस्वी कौतूहलवश वहाँ पधारे हुए पांडवों को देखने के लिये आ गये।

उस समय राजा युधिष्ठिर ने उन सब को प्रणाम करके नेत्रों में आँसू भरकर उन सबसे पूछा- "मुनिवरों! कौरव वंश का पालन करने वाले हमारे ज्येष्ठ पिता इस समय कहाँ गये हैं?" उन्होंने उत्तर दिया- "प्रभो! वे यमुना में स्नान करने, फूल लाने और पानी का घड़ा भरने के लिये गये हुए हैं।" यह सुनकर उन्हीं के बताये हुए मार्ग से वे सब-के-सब पैदल ही यमुना तट की ओर चल दिये। कुछ ही दूर जाने पर उन्होंने उन सब लोगों को वहाँ से आते देखा। फिर तो समस्त पांडव अपने ताऊ के दर्शन की इच्छा से बड़ी उतावली के साथ आगे बढे़। बुद्धिमान सहदेव तो बड़े वेग से दौडे़ और जहाँ कुन्ती थी, वहाँ पहुँचकर माता के दोनों चरण पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगे। कुन्ती ने भी जब अपने प्यारे पुत्र सहदेव को देखा तो उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह चली। उन्होंने दोनों हाथों से पुत्र को उठाकर छाती से लगा लिया और गांधारी से कहा- "दीदी! सहदेव आपकी सेवा में उपस्थित है।"

तदनन्तर राजा युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल को देखकर कुन्ती देवी बड़ी उतावली के साथ उनकी ओर चलीं। वे आगे-आगे चलती थीं और उन पुत्रहीन दम्पति को अपने साथ खींचे लाती थीं। उन्हें देखते ही पांडव उनके चरणों में पृथ्वी पर गिर पड़े। महामना बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र ने बोलने के स्वर से और स्पर्श से पांडवों को पहचानकर उन सबको आश्वासन दिया। तत्पश्चात अपने नेत्रों के आँसू पोंछकर महात्मा पांडवों ने गांधारी सहित राजा धृतराष्ट्र तथा माता कुन्ती को विधिपूर्वक प्रणाम किया। इसके बाद माता से बार-बार सान्त्वना पाकर जब पांडव कुछ स्वस्थ एवं सचेत हुए, तब उन्होंने उन सबके हाथ से जल के भरे हुए कलश स्वयं ले लिये।

तदनन्तर उन पुरुष सिंहों की स्त्रियों तथा अन्तःपुर की दूसरी स्त्रियों ने और नगर एवं जनपद के लोगों ने भी क्रमशः राजा धृतराष्ट्र का दर्शन किया। उस समय स्वयं राजा युधिष्ठिर ने एक-एक व्यक्ति का नाम और गोत्र बताकर परिचय दिया और परिचय पाकर धृतराष्ट्र ने उन सबका वाणी द्वारा सत्कार किया। उन सबसे घिरे हुए राजा धृतराष्ट्र अपने नेत्रों से हर्ष के आँसू बहाने लगे। उस समय उन्हें ऐसा जान पड़ा मानो मैं पहले की भाँति हस्तिनापुर के राजमहल में बैठा हूँ। तत्पश्चात द्रौपदी आदि बहुओं ने गांधारी और कुन्ती सहित बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र को प्रणाम किया और उन्होंने भी उन सबको आशीर्वाद देकर प्रसन्न किया। इसके बाद वे सबके साथ सिद्ध और चारणों से सेवित अपने आश्रम पर आये। उस समय उनका आश्रम तारों से व्याप्त हुए आकाश की भाँति दर्शकों से भरा था।


इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत आश्रमवास पर्व में युधिष्ठिर आदि का धृतराष्ट्र से मिलन विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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