महाभारत आदि पर्व अध्याय 85 श्लोक 1-18

पंचाशीतितम (85) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

Prev.png

महाभारत: आदि पर्व: पंचाशीतितम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


राजा ययाति का विषय-सेवन और वैराग्‍य तथा पुरु का राज्‍याभिषेक करके वन में जाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! नहुष के पुत्र नृपश्रेष्ठ ययाति ने पुरु की युवावस्‍था से अत्‍यन्‍त प्रसन्न होकर अभीष्ट विषयभोगों का सेवन आरम्‍भ किया। राजेन्‍द्र! उनकी जैसी कामना होती, जैसा उत्‍साह होता और जैसा समय होता, उसके अनुसार वे सुखपूर्वक धर्मानुकूल भोगों का उपभोग करते थे। वास्‍तव में उसके योग्‍य वे ही थे। उन्‍होंने यज्ञों द्वारा देवताओं को, श्राद्धों से पितरों को, इच्‍छा के अनुसार अनुग्रह करके दीन-दुखियों को और मुंह मांगी भोग्‍य वस्‍तुऐं देकर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त कि‍या। वे अतिथियों को अन्न और जल देकर, वैश्‍यों को उनके धन-वैभव की रक्षा करके, शूद्रों को दयाभाव से, लुटेरों को कैद करके तथा सम्‍पूर्ण प्रजा को धर्मपूर्वक संरक्षण द्वारा प्रसन्न रखते थे। इस प्रकार साक्षात् दूसरे इन्‍द्र के समान राजा ययाति ने समस्‍त प्रजा का पालन किया। वे राजा सिंह के समान पराक्रमी और नवयुवक थे। सम्‍पूर्ण विषय उनके अधीन थे और वे धर्म का विरोध न करते हुए उत्तम सुख का उपभोग करते थे। वे नरेश शुभ भोगों को प्राप्त करके पहले तो तृप्त एवं आनन्दित होते थे; परंतु जब यह बात ध्‍यान में आती कि ये हजार वर्ष भी पूरे हो जायेंगे, तब उन्‍हें बड़ा खेद होता था। कालतत्त्व को जानने वाले पराक्रमी राजा ययाति एक-एक कला और काष्ठा की गिनती करके एक हजार वर्ष के समय की अवधि का स्‍मरण रखते थे।

राजर्षि ययाति हजार वर्षों की जवानी पाकर नन्‍दनवन में विश्वाची अप्‍सारा के साथ रमण करते और प्रकाशित होते थे। वे अलकापुरी में तथा उत्तर दिशावर्ती मेरु शिखर पर भी इच्‍छानुसार विहार करते थे। धर्मात्‍मा नरेश ने जब देखा कि समय अब पूरा हो गया, तब वे अपने पुत्र पुरु के पास आकर बोले- ‘शत्रुदमन पुत्र! मैंने तुम्‍हारी जवानी के द्वारा अपनी रुचि, उत्‍साह और समय के अनुसार विषयों का सेवन किया है। परंतु विषयों की कामना उन विषयों के उपभोग से कभी शान्‍त नहीं होती; अपितु घी की आहुति पड़ने से अग्नि की भाँति वह अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। इस पृथ्‍वी पर जितने भी धान, जौ, स्‍वर्ण, पशु और स्त्रियां हैं, वे सब एक मनुष्‍य के लिये भी पर्याप्त नहीं हैं। अत: तृष्‍णा का त्‍यागकर देना चाहिये। खोटी बुद्धि वाले लोगों के लिये जिसका त्‍याग करना अत्‍यन्‍त कठिन है, जो मनुष्‍य के बूढ़े होने पर भी स्‍वयं बूढ़ी नहीं होती तथा जो एक प्राणान्‍तक रोग है, उस तृष्‍णा को त्‍याग देने वाले पुरुष को ही सुख मिलता है। देखो, विषय भोग में आसक्तचित्त हुए मेरे एक हजार वर्ष बीत गये, तो भी प्रतिदिन उन विषयों के लिये ही तृष्‍णा पैदा होती है। अत: मैं इस तृष्‍णा को छोड़कर परब्रह्म परमात्‍मा में मन लगा इन्‍द्र और ममता से रहित हो वन में मृगों के साथ विचरूंगा। पुरु! तुम्‍हारा भला हो, मैं प्रसन्न हूँ। अपनी यह जवानी ले लो। साथ ही यह राज्‍य भी अपने अधिकार में कर लो; क्‍योंकि तुम मेरा प्रिय करने वाले पुत्र हो’। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उस समय नहुषनन्‍दन राजा ययाति ने अपनी वृद्धावस्‍था वापस ले ली और पुरु ने पुन: अपनी युवावस्‍था प्राप्त कर ली।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः