महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 89 श्लोक 1-18

एकोननवतितम (89) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर का ब्राह्मणों को दक्षिणा देना और राजाओं को भेंट देकर विदा करना

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उन श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों ने अन्‍यान्‍य पशुओं का विधिपूर्वक श्रपण करके उस अश्‍व का भी शास्‍त्रीय विधि के अनुसार आलभन किया। राजन! तत्‍पश्‍चात याजकों ने विधिपूर्वक अश्व का श्रपण करके उसके समीप मन्त्र, द्रव्‍य और श्रद्धा- इन तीन कलाओं से युक्‍त मनस्‍विनी द्रौपदी को शास्‍त्रोक्‍त विधि के अनुसार बैठाया। भरतश्रेष्ठ! इसके बाद ब्राह्मणों ने शान्‍त चित्त होकर उस अश्‍व की चर्बी निकाली और उसका विधिपूर्वक श्रपण करना आरम्‍भ किया। भाइयों सहित धर्मराज युधिष्‍ठिर ने शास्त्र की आज्ञा के अनुसार उस चर्बी के धूम की गन्‍ध सूंघ, जो समस्‍त पापों का नाश करने वाली थी।

नरेश्‍वर! उस अश्व के जो शेष अंग थे, उनको धीर स्‍वभाव वाले समस्‍त सोलह ऋत्‍विजों ने अग्‍नि में होम कर दिया। इस प्रकार इन्‍द्र के समान तेजस्‍वी राजा युधिष्‍ठिर के उस यज्ञ को समाप्‍त करके शिष्‍यों सहित भगवान व्‍यास ने उन्‍हें बधाई दी- अभ्‍युदयसूचक आशीर्वाद दिया। इसके बाद युधिष्ठिर ने सब ब्राह्मणों को विधिपूर्वक एक हजार करोड़ (एक खर्व) स्‍वर्ण मुद्राएं दक्षिणा में देकर व्‍यास जी को सम्‍पूर्ण पृथ्‍वी दान कर दी। राजन! सत्‍यवतीनन्‍दन व्‍यास ने उस भूमि दान को ग्रहण करके भरतश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- ‘नृपश्रेष्‍ठ! तुम्‍हारी दी हुई इस पृथ्‍वी को मैं पुन: तुम्‍हारे ही अधिकार में छोड़ता हूँ। तुम मुझे इसका मूल्‍य दे दो; क्‍योंकि ब्राह्मण धन के ही इच्‍छुक होते हैं (राज्‍य के नहीं)।’

तब महामनस्‍वी नरेशों के बीच में भाइयों सहित बुद्धिमान महामना युधिष्ठिर ने उन ब्राह्मणों से कहा- ‘विप्रवरो! अश्‍वमेध नामक महायज्ञ में पृथ्‍वी की दक्षिणा देने का विधान है; अत: अर्जुन के द्वारा जीती हुई यह सारी पृथ्‍वी मैंने ऋत्‍विजों को दे दी है। अब मैं वन में चला जाऊँगा। आप लोग चातुर्होत्र यज्ञ के प्रमाणानुसार पृथ्‍वी के चार भाग करके इसे आपस में बांट लें। द्विजश्रेष्ठगण! मैं ब्राह्मणों का धन लेना नहीं चाहता। ब्राह्मणों! मेरे भाइयों का भी सदा ऐसा ही विचार रहता है।’ उनके ऐसा कहने पर भीमसेन आदि भाइयों और द्रौपदी ने एक स्‍वर से कहा- ‘हाँ, महाराज का कहना ठीक है। महान त्‍याग की बात सुनकर सब के रोंगटे खड़े हो गये।'

भारत! उस समय आकाशवाणी हुई- ‘पाण्‍डवों! तुमने बहुत अच्‍छा निश्‍चय किया। तुम्‍हें धन्‍यवाद!’ इसी प्रकार पाण्‍डवों के सत्‍साहस की प्रशंसा करते हुए ब्राह्मण समूहों का भी शब्‍द वहाँ स्‍पष्‍ट सुनायी दे रहा था। तब मुनिवर द्वैपायन कृष्‍ण ने पुन: ब्राह्मणों के बीच में युधिष्ठिर की प्रशंसा करते हुए कहा- ‘राजन! तुमने तो यह पृथ्‍वी मुझे दे ही दी। अब मैं अपनी ओर से इसे वापस करता हूँ। तुम इन ब्राह्मणों को सुवर्ण दे दो और पृथ्‍वी तुम्‍हारे ही अधिकार में रह जाय।’ तब भगवान श्रीकृष्‍ण ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- ‘धर्मराज! भगवान व्‍यास जैसा कहते हैं वैसा ही तुम्‍हें करना चाहिये।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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