अष्टाशीतितम (88) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: अष्टाशीतितम अध्याय: श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद
शत्रुसूदन महातेजस्वी भीमसेन महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भोजनार्थियों को भोजन दिलाने के काम पर सदा डटे रहते थे। यज्ञ की वेदी बनाने में निपुण याजकगण प्रतिदिन शास्त्रों विधि के अनुसार सब कार्य सम्पन्न किया करते थे। बुद्धिमान राजा युधिष्ठिर के यज्ञ का कोई भी सदस्य ऐसा नहीं था जो छहों अंगों का विद्वान, ब्रह्मचर्य- व्रत का पालन करने वाला, अध्यापन कर्म में कुशल तथा वाद- में प्रवीण न हो। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात जब यूप की स्थापना का समय आया, तब याजकों ने यज्ञ भूमि में बेल के छ:, खैर के छ:, पलाश के भी छ:, देवदारु के दो और लसोड़े का अचार एक -इस प्रकार इक्कीस यूप कुरुराज युधिष्ठिर के यज्ञ में खड़े किये। भरतभूषण! इनके सिवा धर्मराज की आज्ञा से भीमसेन ने यज्ञ की शोभा के लिये और भी बहुत- से सवर्णमय यूप खड़े कराये। वस्त्रों द्वारा अलंकृत किये गये वे राजर्षि युधिष्ठिर के यज्ञ सम्बन्धी यूप आकाश में सप्तर्षियों से घिरे हुए इन्द्र के अनुगामी देवताओं के समान शोभा पाते थे। यज्ञ की वेदी बनाने के लिये वहाँ सोने की ईंटें तैयार करायी गयी थीं। उनके द्वारा जब वेदी बनकर तैयार हुई तब वह दक्ष प्रजापति की यज्ञ वेदी के समान शोभा पाने लगी। उस यज्ञ मण्डप में अग्नि चयन के लिये चार स्थान बने थे। प्रत्येक वेदी सुवर्णमय पंख से युक्त एवं गरुड़ के समान आकार वाली थी। वह त्रिकोणाकार बनायी गयी थी। तदनन्तर मनीषी पुरुषों ने शास्त्रोंक्त विधि के अनुसार पशुओं को नियुक्त किया। भिन्न-भिन्न देवताओं के उद्देश्य से पशु-पक्षी, शास्त्र कथित वृषभ और जलचर जन्तु- इन सबका अग्नि स्थापन-कर्म में याजकों ने उपयोग किया। कुन्तीनन्दन महात्मा युधिष्ठिर के उस यज्ञ में जो यूप खड़े किये गये थे, उनमें तीन सौ पशु बांधें गये थे। उन सब में प्रधान वही अश्व रत्न था। साक्षात देवर्षियों से भरा हुआ युधिष्ठिर का वह यज्ञ बड़ी शोभा पा रहा था। गन्धर्वों के मधुर संगीत और अप्सराओं के नृत्य से उसकी शोभा बढ़ गयी थी। वह यज्ञ मण्डप किम्पुरुषों से भरा-पूरा था। किन्नर भी उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उसके चारों ओर सिद्धों और ब्राह्मणों के निवास स्थान बने थे, जिनसे वह यज्ञ- मण्डप घिरा था। व्यास जी के शिष्य श्रेष्ठ ब्राह्मण उस यज्ञ सभा में सदा उपस्थित रहते थे। नारद, महातेजस्वी तुम्बुरु, विश्वावसु, चित्रसेन तथा अन्य संगीत कला लोकविद, गान निपुण एवं नृत्यविशारद गन्धर्व प्रतिदिन यज्ञ कार्य के बीच-बीच में समय मिलने पर अपनी नाच-गान की कलाओं द्वारा उन ब्राह्मणों का मनोरंजन करते थे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में अश्वमेध यज्ञ का आरम्भ विषयक अठासीवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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