दशम (10) अध्याय: कर्ण पर्व
महाभारत: कर्ण पर्व: दशम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
सेना को लौटाकर अपने शिविर में प्रवेश करने के पश्चात समस्त कौरव परस्पर अपने हित के लिये गुप्त मन्त्रणा करने लगे। उस समय वे सब लोग बहुमूल्य बिछौनों से युक्त मूल्यवान पलंगों तथा श्रेष्ठ सिंहासनों पर बैठे हुए थे, मानो सुचाद शय्याओं पर विराज रहे हों। उस समय राजा दुर्योधन ने सान्त्वना पूर्ण परम मधुर वाणी द्वारा उन महाधनुर्धर नरेशों को सम्बोधित करके यह समयोचित बात कही- ‘बुद्धिमानों में श्रेष्ठ नरेश्वरों! तुम सब लोग शीघ्र बोलो, विलम्ब न करो, इस अवस्था में हम लोगों को क्या करना चाहिये और सबसे अधिक आवश्यक कर्तव्य क्या है?’ संजय कहते हैं- राजा दुर्योधन के ऐसा कहने पर वे सिंहासन पर बैठे हुए पुरुषसिंह नरेश युद्ध की इच्छा से नाना प्रकार की चेष्टाएँ करने लगे। युद्ध में प्राणों की आहुति देने की इच्छा रखने वाले उन नरेशों की चेष्टाएँ देखकर राजा दुर्योधन के प्रातःकालीन सूर्य के समान तेजस्वी मुख की ओर दृष्टिपात करके वाक्य विशारद, मेधावी आचार्य पुत्र अश्वत्थामा ने यह बात कही- विद्वानों अभीष्ट अर्थ की सिद्धि करने वाले चार उपाय बताये हैं - राग (राजा के प्रति सैनिको की भक्ति), योग (साधन-सम्पत्ति), दक्षता (उत्साह, बल एवं कौशल), तथा नीति; परंतु वे सभी दैव के अधीन हैं। ‘हमारे पक्ष में जो देवताओं के समान पराक्रमी, विश्वविख्यात महारथी वीर, नीतिमान, साधन सम्पन्न, दक्ष और स्वामी के प्रति अनुरक्त थे, वे सब के सब मारे गये, तथापि हमें अपनी विजय के प्रति निराश नहीं होना चाहिये। यदि सारे कार्य उत्तम नीति के अनुसार किये जायँ तो उनके द्वारा दैव को भी अलुकूल किया जा सकता है; अतः भारत! हम लोग सर्वगुण सम्पन्न नरश्रेष्ठ कर्ण का ही सेनापति के पद पर अभिषेक करेंगे और इन्हें सेनापति बनाकर हम लोग शत्रुओं को मथ डालेंगे। ‘ये अत्यन्त बलवान, शूरवीर, अस्त्रों के ज्ञाता, रण दुर्मद और सूर्यपुत्र यमराज के समान शत्रुओं के लिये असह्य हैं। इसलिये ये रणभूमि में हमारे विपक्षियों पर विजय पा सकते हैं’। राजन! उस समय आचार्य पुत्र अश्वत्थामा के मुख से यह बात सुनकर आपके पुत्र दुर्योधन ने कर्ण के प्रति विशेष आशा बाँध ली। भरतनन्दन! भीष्म और द्रोणाचार्य के मारे जाने पर कर्ण पाण्डवों को जीत लेगा, इस आशा को हृदय में रखकर दुर्योधन को बड़ी सान्त्वना मिली। महाराज! वह अश्वत्थामा के उस प्रिय वचन को सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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