चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततम (234) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
व्यास जी कहते हैं– बेटा! तुमने भूतसमुदाय के विषय में जो प्रश्न किया था, उसी के उत्तर में मैंने यह सब बताया है। अब मैं तुम्हें ब्राह्मण का जो कर्तव्य है, वह बता रहा हूँ, सुनो। ब्राह्मण बालक के जातकर्म से लेकर समावर्तन तक समस्त संस्कार वेदों के पारंगतविद्वान् आचार्य के निकट रहकर सम्पन्न होने चाहिये और उनमें समुचित दक्षिणा देनी चाहिये। उपनयन के पश्चात ब्राह्मण बालक गुरुशुश्रूषा में तत्पर हो सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करे। तत्पश्चात पर्याप्त गुरु दक्षिणा दे। गुरु ऋण से उऋण हो वह यज्ञवेत्ता बालक समावर्तन संस्कार के पश्चात घर लौटे। तदनन्तर आचार्य की आज्ञा लेकर चारों आश्रमों में से किसी एक आश्रम में शास्त्रोक्त विधि के अनुसार जीवनपर्यन्त रहे ( अथवा क्रमश: सभी आश्रमों में प्रवेश करे)। उसकी इच्छा हो तो स्त्री परिग्रह करके गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए संतान उत्पन्न करे अथवा आजीवन ब्रह्माचर्यव्रत का पालन करे या वन में रहकरवानप्रस्थ धर्म के अनुसार जीवन व्यतीत करे। यह गृहस्थ आश्रम सब धर्मो का मूल कहा जाता है। इसमें रहकर अन्त:करण के रागादि दोष पक जाने पर जितेन्द्रिय पुरुष को सर्वत्र सिद्धि प्राप्त होती है। गृहस्थ पुरुष संतान उत्पन्न करके पितृ ऋण से, वेदों का स्वाध्याय करके ऋषि ऋण से और यज्ञों का अनुष्ठान करके देव ऋण से छुटकारा पाता है। इस प्रकार तीनों ऋणों से मुक्त हो विहित कर्मों का सम्पादन करके पवित्र बने। तत्पश्चात दूसरे आश्रमों में प्रवेश करे। इस पृथ्वी पर जो स्थान पवित्र एवं उत्तम जान पड़े, वहीं निवास करे। उसी स्थान में रहकर वह उत्तम यश के विषय में अपने को आदर्श पुरुष बनाने का प्रयत्न करे। महान तप, पूर्ण विधाध्ययन, यज्ञ अथवा दान करने से ब्राह्मणों का यश बढ़ता है। जब तक इस जगत में यश को बढ़ाने वाली उसकी कीर्ति बनी रहती हैं, तब तक वह पुण्यवानों के अक्षय लोकों में निवास करके दिव्य सुख भोगता रहता है। ब्राह्मण को अध्ययन अध्यापन, यजन-याजन तथा दान और प्रतिग्रह– इन छ: कर्मो का आश्रय लेना चाहिये; परंतु उसे किसी तरह न तो अनुचित प्रतिग्रह स्वीकार करना चाहिये, नव्यर्थ दान ही देना चाहिये। यजमान से, शिष्य से अथवाकन्या-शुल्क से जब महान धन प्राप्त हो, तब उसके द्वारा यज्ञ करे, दान दे, अकेला किसी तरह उस धन का उपभोग न करे। देवता, ऋषि, पितर, गुरु, वृद्ध, रोगी और भूखे मनुष्यों को भोजन देने के लिये गृहस्थ ब्राह्मण को प्रतिग्रह स्वीकार करना चाहिये। प्रतिग्रह के सिवा ब्राह्मण के लिये धनसंग्रह का दूसरा कोई पवित्र मार्ग नहीं है। जो दारिद्रयग्रस्त होने के कारण लज्जा से छिपे-छिपे फिरते हैं तथा अत्यन्त संतप्त हैं, अथवा जो यथाशक्ति अपनी पारमार्थिक उन्नति के लिये प्रयत्न करना चाहते हैं, ऐसे भूदेवों को उपार्जित धन में से यथाशक्ति देना चाहिये। योग्य एवं पूजनीय ब्राह्मणों के लिये कोई भी वस्तु अदेय नहीं है। वैसे सत्पात्रों के लिये तो उच्चै:श्रवा घोड़ा भी दिया जा सकता है, यह श्रेष्ठ पुरुषों का मत है। महान व्रतधारी राजा सत्यसंध ने इच्छानुसार अनुनय-विनय करके अपने प्राणों द्वारा एक ब्राह्मण के प्राणों की रक्षा की थी, ऐसा करके वे स्वर्गलोक में गये थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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