महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 1-15

दशम (10) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)

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महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: नवम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


इन्द्र का गन्धर्वराज को भेजकर मरुत्त को भय दिखाना और संवर्त का मन्त्रबल से इन्द्रसहित सब देवताओं को बुलाकर मरुत्त का यज्ञ पूर्ण करना

इन्द्र ने कहा यह ठीक है कि ब्रह्मबल सबसे बढ़कर है। ब्राह्मण से श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है, किंतु मैं राजा मरुत्त के बल को नहीं सह सकता। उनके ऊपर अवश्य अपने घोर वज्र का प्रहार करूगाँ। गन्धर्वराज धृतराष्ट्र! अब तुम मेरे भेजने से वहाँ जाओ और संवर्त के साथ मिले हुए। राजा मरुत्त से कहा- ‘राजन! आप बृहस्पति को आचार्य बनाकर उनसे यज्ञ कर्म की शिक्षा-दीक्षा ग्रहण कीजिये। अन्यथा मैं इन्द्र आप पर घोर व्रज का प्रहार करूँगा’।

व्यास जी कहते हैं- तब गन्धर्वराज धृतराष्ट्र राजा मरुत्त के पास गये और उनसे इन्द्र का संदेश इस प्रकार कहने लगे- ‘महाराज! आपको विदित हो कि मैं धृतराष्ट्र नामक गन्धर्व हूँ और आपको देवराज इन्द्र का संदेश सुनाने आया हूँ। राजसिंह! सम्पूर्ण लोकों के स्वामी महामना इन्द्र ने जो कुछ कहा है, उनका वह वाक्य सुनिये। अचिन्त्यकर्मा इन्द्र कहते हैं- ‘राजन! आप बृहस्पति को अपने यज्ञ का पुरोहित बनाइये। यदि आप मेरी यह बात नहीं मानेंगे तो मैं आप पर भयंकर वज्र का प्रहार करूँगा’।

मरुत्त ने कहा- गन्धर्वराज! आप, इन्द्र, विश्वेदेव, वसुगण तथा अश्निनीकुमार भी इस बात को जानते हैं कि मित्र के साथ द्रोह करने पर ब्रह्म हत्या के समान महान पाप लगता है। उससे छुटकारा पाने का संसार में कोई उपाय नहीं है। गन्धर्वराज! बृहस्पति जी वज्रधारियों में श्रेष्ठ देवेश्वर महेन्द्र का यज्ञ करायें। मेरा यज्ञ तो अब संवर्त जी ही करायेंगे। इसके विरुद्ध न तो मैं आपकी बात मानूँगा और न इन्द्र की ही।

गन्धर्वराज ने कहा- राजसिंह! आकाश में गर्जना करते हुए इन्द्र का वह घोर सिंहनाद सुनिये। जान पड़ता है, महेन्द्र आपके ऊपर वज्र छोड़ना ही चाहते हैं, अत: राजन! अपनी रक्षा एवं भालाई का उपाय सोचिये। इसके लिये सही अवसर है। व्यास जी कहते हैं- राजन! धृतराष्ट्र के ऐसा कहने पर राजा मरुत्त ने आकाश में गरजते हुए इन्द्र का शब्द सुनकर सदा तपस्या में तत्पर रहने वाले धर्मज्ञों में श्रेष्ठ संवर्त को इन्द्र के इस कार्य की सूचना दी मरुत्त ने कहा- विप्रवर! देवराज इन्द्र दूर से ही प्रहार करने की चेष्टा कर रहे हैं, वे दूर की राह पर खड़े हैं, इसलिये उनका शरीर दृष्टिगोचर नहीं होता। ब्राह्मण शिरोमणे! मैं आपकी शरण में हूँ और आपके द्वारा अपनी रक्षा चाहता हूँ, अत: आप कृपा करके मुझे अभय-दान दें। देखिये, वे वज्रधारी इन्द्र दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए चले आ रहे हैं। इनके भयंकर एवं अलौकिक सिंहनाद से हमारी यज्ञशाला के सभी सदस्य थर्रा उठे हैं।

संवर्त ने कहा- राजसिंह! इन्द्र से तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये। मैं स्तम्भिनी विद्या का प्रयोग करके बहुत जल्द तुम्हारे आने वाले इस अत्यन्त भयंकर संकट को दूर किये देता हूँ। मुझ पर विश्वास करो और इन्द्र से पराजित होने का भय छोड़ दो। नरेश्वर! मैं अभी उन्हें स्तम्भित करता हूँ, अत: तुम इन्द्र से न डरो। मैंने सम्पूर्ण देवताओं के अस्त्र-शस्त्र भी क्षीण कर दिये हैं। चाहे दसों दिशाओं में वज्र गिरे, आँधी चले, इन्द्र स्वयं ही वर्षा बनकर सम्पूर्ण वनों में निरन्तर बरसते रहें, आकश में व्यर्थ ही जलप्लावन होता रहे और बिजली चमके तो भी तुम भयभीत न होओ। अग्रिदेव तुम्हारी सब ओर से रक्षा करें। देवराज इन्द्र तुम्हारे लिये जल की नहीं, सम्पूर्ण कामनाओं की वर्षा करें और तुम्हारे वध के लिये उठे हुए और जलराशि के साथ चंचल गति से चले हुए महाघोर वज्र को वे देवेन्द्र हाथ में ही रखे रहें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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