नवम (9) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: नवम अध्याय: श्लोक 27-37 का हिन्दी अनुवाद
अग्निदेव ने कहा- महेन्द्र! राजा शर्याति के उस यज्ञ का तो स्मरण कीजिये, जहाँ महर्षि च्यवन उनका यज्ञ कराने वाले थे। आप क्रोध में भरकर उन्हें मना करते ही रह गये और उन्होंने अकेले अपने ही प्रभाव से सम्पूर्ण देवताओं सहित अश्विनीकुमारों के साथ सोमरस का पान किया। पुरंदर! उस समय आप अत्यन्त भयंकर वज्र लेकर महर्षि च्यवन के ऊपर प्रहार करना ही चाहते थे, किंतु उन ब्रह्मर्षि ने कुपित होकर अपने तपो बल से आपकी बाँह को वज्र सहित जकड़ दिया। तदनन्तर उन्होंने पुन: रोषपूर्वक आपके लिये सब ओर से भयानक रूप वाले एक शत्रु को उत्पन्न किया। जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त मद नामक असुर था और जिसे देखते ही आपने आँखें बंद कर ली थीं। उस विशालकाय दानव की एक ठोढ़ी पृथ्वी पर टिकी हुई थी और दूसरा ऊपर का ओठ स्वर्ग से जा लगा था। उसके सैकड़ों योजन लंबे सहस्रों तीखे दाँत थे, जिससे उसका रूप बड़ा भयंकर प्रतीत होता था। उसकी चार दाढ़े गोलाकार, मोटी और चाँदी के खम्भों के समान चमकीली थीं। उनकी लंबाई दो-दो सौ योजन की थी। वह दानव भयंकर त्रिशूल लेकर आपको मार डालने की इच्छा से दाँत पीसता हुआ दौड़ा था। दानवदलन देवराज! आपने उस समय उस घोररूपधारी दानव को देखा था और अन्य सब लोगों ने आपकी ओर भी दृष्टिपात किया था। उस अवसर पर भय के कारण आपकी जो दशा हुई थी, वह देखने ही योग्य थी। आप उस दानव से भयभीत हो हाथ जोड़कर महर्षि च्यवन की शरण में गये थे। अत: देवेन्द्र! क्षात्रबल की अपेक्षा ब्राह्मण बल श्रेष्ठतम है। ब्राह्मण से बढ़कर दूसरी कोई शक्ति नहीं है। मैं ब्रह्मतेज को अच्छी तरह जानता हूँ, अत: संवर्त को जीतने की मुझे इच्छा तक नहीं होती है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अश्वमेध पर्व में संवर्त और मरुत्त का उपाख्यानविषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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