महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 276 श्लोक 1-14

षट्सप्‍तत्‍यधिकद्विशतत (276) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षट्सप्‍तत्‍यधिकद्विशतत अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
तृष्‍णा के परित्‍याग के विषय में माण्‍डव्‍य मुनि और जनक का संवाद

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! हम लोग बड़े पापी और क्रूर हैं। हमने धन के लिए ही भाई, पिता, पौत्रकुटुम्‍बीजन, सुहृद् और पुत्र- इन सबका संहार कर डाला। यह जो धनजनिक तृष्‍णा को किस तरह दूर करें? भीष्‍म जी बोल- राजन! एक बार माण्‍डव्‍य मुनि ने विदेहराज जनक से ऐसा ही प्रश्‍न किया था, उसके उत्‍तर में विदेहराज ने जो उद्गार प्रकट किया था, उसी प्राचीन इतिहास को विज्ञ पुरुष ऐसे अवसरों पर उदाहरण के तौर पर दुहराया करते हैं।

राजा जनक ने कहा था कि मैं बड़े सुख से जीवन व्‍यतीत करता हूँ, क्‍योंकि इस जगत की कोई भी वस्‍तु मेरी नहीं है। किसी पर भी मेरा ममत्‍व नहीं है। यदि सारी मिथिला में आग लग जाय तो भी मेरा कुछ नहीं जलता है। जो विवेकी हैं, उन्‍हें बड़े समृद्धि सम्‍पन्‍न विषय भी दु:ख रुप ही जान पड़ते है। परंतु अज्ञानियों को तुच्‍छ विषय भी सदा मोह में डाले रहते हैं। लोक में जो काम‍जनित सुख है तथा जो स्‍वर्ग का दिव्‍य एवं महान सुख है, वे दोनों तृष्‍णा क्षय से होने वाले सुख की सोलहवीं कला की भी तुलना पाने के योग्‍य नहीं है।

जिस प्रकार समयानुसार बड़े होते हुए बछडे़ का सींग भी उसके शरीर के साथ ही बढ़ता है, उसी प्रकार बढ़ते हुए धन के साथ तृष्‍णा भी बढ़ती जाती है। कोई भी वस्‍तु क्‍यों न हो, जब उसके प्रति ममता कर ली जाती है- वह वस्‍तु अपनी मान ली जाती है, तब नष्ट होने पर वही संताप का कारण बन जाती है। इसलिए कामनाओं या भोगों की वृद्धि के लिए आग्रह नहीं रखना चाहिये। भोगों में जो आसक्ति होती है, वह दु:ख रुप ही है। धन पाकर भी उसे धर्म में ही लगा देना चाहिये। काम-भोगों को तो सर्वथा त्‍याग ही देना चाहिये। विद्वान पुरुष सभी प्राणियों के प्रति अपने समान ही भाव रखे। इससे वह कृतकृत्‍य और शुद्धचित्‍त होकर समस्‍त दोषों को त्‍याग देता है। वह सत्‍य-असत्‍य, हर्ष-शोक, प्रिय-अप्रिय तथा भय-अभय आदि सभी द्वन्‍द्वों को त्‍याग कर अत्‍यन्‍त शान्‍त और निर्विकार हो जाता है। खोटी बुद्धि वाले मूढ़ पुरुषों के लिये जिसका त्‍याग करना कठिन है, जो शरीर के जराजीर्ण हो जाने पर भी स्‍वयं जीर्ण न होकर नयी-नवेली ही बनी रहती है तथा जिसे प्राणान्‍तकाल तक रहने वाला रोग माना गया है, उस तृष्‍णा को जो त्‍याग देता है, उसी को परम सुख मिलता है। जो अपने सदाचार को चन्‍द्रमा के समान विशुद्ध, उज्‍जवल एवं निर्विकार देखता है, वह धर्मात्‍मा पुरुष इहलोक और परलोक में कीर्ति एवं उत्तम सुख पाता है। राजा के ये वचन सुनकर ब्रह्मर्षि माण्‍डव्‍य बड़े प्रसन्‍न हुए। उनके कथन की प्रशंसा करके मुनि ने मोक्षमार्ग का आश्रय लिया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्म पर्व में माण्‍डव्‍य और जनक का संवाद विषयक दो छिहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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