महाभारत वन पर्व अध्याय 302 श्लोक 1-17

द्वयधिकत्रिशततम (302) अध्‍याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्वयधिकत्रिशततम अध्यायः 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


सूर्य-कर्ण संवाद, सूर्य की आज्ञा के अनुसार कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही उन्हें कुण्डल और कवच देने का निश्चय

कर्ण ने कहा- सूर्यदेव! मैं आपका अनन्य भक्त हूँ, जैसा कि आप भी मुझे जानते हैं। प्रचण्डरश्मे! आपके लिये किसी प्रकार कुछ भी अदेय नहीं है। स्त्री, पुरुष, सुहृद् और अपना शरीर भी मुझे वैसा प्रिय नहीं है, जैसे आप हैं। किरणों के स्वामी सूर्यदेव! सदा आप ही मेरे भक्तिभाव के आश्रय हैं। प्रभाकर! आप भी जानते हैं कि महात्मा पुरुष भी अपने प्रिय भक्तों पर पूर्ण स्नेह रखते हैं, इसमें संदेह नहीं है। आपको यह मालूम है कि कर्ण मेरा प्रिय भक्त है और वह स्वर्ग के दूसरे किसी भी देवता को (अपने इष्टरूप में) नहीं जानता है, यही समझकर आप मुझे मेरे हित का उपदेश कर रहे हैं। प्रचण्ड किरणों वाले देव! मैं पुनः आपके चरणों में मस्तक रखकर, आपको प्रसन्न करके बारंबार क्षमा याचना करता हूँ। इस समय मैं जो कुछ कहता हूँ, उसके लिये आप मुझे क्षमा करें। मैं मृत्यु से भी उतना नहीं डरता, जितना झूठ से डरता हूँ। विशेषतः सदा समस्त सज्जन ब्राह्मणों को उनके माँगने पर अपने प्राण देने में मुझे कोई सोच-विचार नहीं हो सकता है।

देव! आपने पाण्डुनन्दन अर्जुन से जो मेरे लिये डर की बात बतायी है, उसके लिये आपके मन में कोई दुःख और संताप नहीं होना चाहिये। भास्कर! मैं कार्तवीर्य अर्जुन के समान पराक्रमी अर्जुन को युद्ध में अवश्य जीत लूँगा। देव! मेरे पास भी अस्त्रों का जो महान् बल है, इसे आप भी जानते हैं। मैंने जमदग्निनन्दन परशुराम तथा महात्मा द्रोणाचार्य से अस्त्रविद्या सीखी है। सुरश्रेष्ठ! यह जो मेरा दान देने का व्रत है, उसके लिये आप भी मुझे आज्ञा दीजिये, जिससे मैं याचक बनकर आये हुए इन्द्र को अपने प्राण तक दे सकूँ।'

सूर्य बोले- तात! यदि तुम इन्द्र को ये दोनों सुन्दर कुण्डल दे रहे हो, तो तुम भी उन महाबली इन्द्र से अपनी विजय के लिये कोई अस्त्र माँग लेना और उनसे स्पष्ट कह देना कि देवराज! मैं एक शर्त के साथ ये दोनों कुण्डल आपको दे सकता हूँ। कर्ण! इन दोनों कुण्डलों से युक्त रहने पर तुम सभी प्राणियों के लिये अवध्य बने रहोगे। वत्स! दानवसूदन इन्द्र युद्ध में अर्जुन द्वारा तुम्हारा विनाश चाहते हैं। इसीलिये वे तुम्हारे दोनों कुण्डलों को हर लेने की इच्छा करते हैं। अतः तुम भी उनकी आराधना करके बारंबर मीठे वचन बोलकर देवेश्वर इन्द्र से किसी अमोघ अस्त्र के लिये प्रार्थना करना। तुम उनसे कहना- ‘सहस्राक्ष! मैं आपको अपने शरीर का उत्तम कवच और दोनों कुण्डल दे दूँगा, परंतु आप भी मुझे अपनी वह अमोघ शक्ति प्रदान कीजिये, जो शत्रुओं का संहार करने वाली है। इसी शर्त के साथ तुम इन्द्र को अपने कुण्डल देना। कर्ण! उस शक्ति के द्वारा तुम युद्ध में अपने शत्रुओं को मार डालोगे। महाबाहो! देवराज इन्द्र की वह शक्ति युद्ध में सैंकड़ों, हजारों शत्रुओं का वध किये बिना पुनः हाथ में लौटकर नहीं आती।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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