महाभारत वन पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-22

द्विचत्‍वारिंश (42) अध्‍याय: वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

Prev.png

महाभारत: वन पर्व: द्विचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन का हिमालय से विदा होकर मातलि के साथ स्वर्गलोक को प्रस्थान

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! लोकपालों के चले जाने पर शत्रुसंहारक अर्जुन ने देवराज इन्द्र के रथ का चिन्तन किया। निद्राविजयी बुद्धिमान् पार्थ के चिन्तन करते ही मातलि सहित महातेजस्वी रथ वहाँ आ गया। वह रथ आकाश को अन्धकारशून्य मेघों की घटा को विदीर्ण और महान् मेघ की गर्जना के समान गम्भीर शब्द से दिशाओं को परिपूर्ण-सा कर रहा था। उस रथ में तलवार, भयंकर शक्ति, उग्र गदा, दिव्य प्रभावशाली प्रास, अत्यन्त कांतिमयी विद्युत्, अशनि एवं चक्रयुक्त भारी वजन वाले प्रस्तर के गोले रखे हुए थे, जो चलाते समय हवा में सनसनाहट पैदा करते थे तथा जिनसे वज्रगर्जना और महामेघों की गम्भीर ध्वनि के समान शब्द होते थे। उस स्थान में अत्यन्त भयंकर तथा प्रज्वलित मुख वाले विशालकाय सर्प मौजूद थे। श्वेत बादलों के समूह की भाँति ढेर-के-ढेर युद्ध में फेंकने योग्य पत्थर भी रखे हुए थे। वायु के समान वेगशाली दस हजार श्वेत-पीत रंग वाले घोडे़ नेत्रों में चकाचौंध पैदा करने वाले उस दिव्य मायामय रथ को वहन करते थे। अर्जुन ने उस रथ पर अत्यन्त नीलवर्ण वाले महातेजस्वी ‘वैजयन्त’ नामक इन्द्रध्वज को फहराता देखा। उसकी श्याम सुषमा नील कमल की शोभा को तिरस्कृत कर रही थी। उस ध्वज के दण्ड में सुवर्ण मढ़ा हुआ था। महाबाहु कुन्तीकुमार ने उस रथ पर बैठे हुए सारथि की ओर देखा, जो तपाये हुए सुवर्ण के आभूषणों से विभूषित था। उसे देखकर उन्होंने कोई देवता ही समझा। इस प्रकार विचार करते हुए अर्जुन के सम्मुख उपस्थित हो मातलि ने विनीत भाव से कहा।

मातलि बोला- 'इन्द्रकुमार! श्रीमहान् देवराज इन्द्र आपको देखना चाहते हैं। यह उनका प्रिय रथ है। आप इस पर शीघ्र आरूढ़ होइये। आपके पिता देवेश्वर शतक्रतु ने मुझसे कहा है कि ‘तुम कुन्तीनन्दन अर्जुन को यहाँ ले आओ, जिससे सब देवता उन्हें देखें। देवताओं, महर्षियों, गन्धर्वों तथा अप्सराओं से घिरे हुए इन्द्र आपको देखने के लिये प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप देवराज की आज्ञा से इस लोक से मेरे साथ देवलोक को चलिये। वहाँ से दिव्यास्त्र प्राप्त करके लौट आइयेगा।'

अर्जुन ने कहा- 'मातले! आप जल्दी चलिये। अपने इस उत्तम रथ पर पहले आप चढ़िये। यह सैकड़ों राजसूय और अश्वमेध यज्ञों द्वारा भी अत्यन्त दुर्लभ है। प्रचुर दक्षिणा देने वाले, महान् सौभाग्यशाली, यज्ञपरायण भूमिपालों, देवताओं अथवा दानवों के लिये भी इस उत्तम रथ पर आरूढ़ होना कठिन है। जिन्होंने तपस्या नहीं की है, वे इस महान् दिव्य रथ का दर्शन या स्पर्श भी नहीं कर सकते, फिर इस पर आरूढ़ होने की तो बात ही क्या है? साधु सारथे! आप इस रथ पर स्थिरतापूर्वक बैठकर जब घोड़ों को काबू में कर लें, तब जैसे पुण्यात्मा सन्मार्ग पर आरूढ़ होता है, उसी प्रकार पीछे में भी इस रथ पर आरूढ़ होऊंगा।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अर्जुन का यह वचन सुनकर इन्द्रसारथि मातलि शीघ्र ही रथ पर जा बैठा और बागडोर खींचकर घोड़ों को काबू में किया। तदनन्तर कुरुनन्दन कुन्तीकुमार अर्जुन ने प्रसन्न मन से गंगा में स्नान किया और पवित्र हो विधिपूर्वक जपने योग्य मन्त्र का जप किया। फिर विधिपूर्वक न्यायोचित रीति से पितरों का तर्पण करके विस्तृत शैलराज हिमालय से विदा लेने का उपक्रम किया। ‘गिरिराज! तुम साधु-महात्माओं, पुण्यात्मा मुनियों तथा स्वर्गमार्ग की अभिलाषा रखने वाले पुण्यकर्मा मनुष्य के सदा शुभ आश्रय हो।'

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः