महाभारत वन पर्व अध्याय 42 श्लोक 23-42

द्विचत्‍वारिंश (42) अध्‍याय: वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्विचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 23-42 का हिन्दी अनुवाद


‘गिरीराज! तुम्हारे कृपाप्रसाद से सदा कितने ही ब्राह्मण और क्षत्रिय और वैश्य स्वर्ग में जाकर व्यथारहित हो देवताओं के साथ विचरते हैं। अद्रिराज! महाशैल! मुनियों के निवासस्थान! तीथों से विभूषित हिमालय! मैं तुम्हारे शिखर पर सुखपूर्वक रहा हूं, अतः तुमसे आज्ञा माँगकर यहाँ से जा रहा हूँ। तुम्हारे शिखर, कुंजवन, नदियां, झरने और परम पुण्यमय तीर्थस्थान मैंने अनेक बार देखें हैं। यहाँ के विभिन्न स्थानों से सुगन्धित फल लेकर भोजन किये हैं। तुम्हारे शरीर से प्रकट हुए परम सुगन्धित प्रचुर जल का सेवन किया है। तुम्हारे झरने का अमृत के समान स्वादिष्ट जल मैंने प्रतिदिन पान किया है। प्रभो नागराज! जैसे शिशु अपने पिता के अंक में बड़े सुख से रहता है, उसी प्रकार मैंने भी तुम्हारी गोद में आमोदपूर्वक क्रीड़ाएं की हैं। शैलराज! अप्सराओं से व्याप्त और वैदिक मन्त्रों के उच्च घोष से प्रतिध्वनित तुम्हारे शिखरों पर मैंने बड़े सुख से निवास किया’।

ऐसा कहकर शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन शैलराज से आज्ञा मांनकर उस दिव्य रथ को देदीप्यमान करते हुए से उस पर आरूढ़ हो गये, मानो सूर्य सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे हों। परम् बुद्धिमान् कुरुनन्दन अर्जुन बड़े प्रसन्न होकर उस अद्भुत चाल से चलने वाले सूर्यस्वरूप दिव्य रथ के द्वारा ऊपर की ओर जाने लगे। धीरे-धीरे धर्मात्मा मनुष्यों के दृष्टिपथ से दूर हो गये। ऊपर जाकर उन्होंने सहस्रों अद्भुत विमान देखे। वहाँ न सूर्य प्रकाशित होते हैं, न चन्द्रमा। अग्नि की प्रभा भी वहाँ काम नहीं देती है। वहाँ स्वर्ग के निवासी अपने पुण्कर्मो से प्राप्त हुई अपनी ही प्रभा से प्रकाशित होते हैं। यहाँ प्रकाशमान तारों के रूप में जो दूर होने के कारण दीपक की भाँति छोटे और बड़े प्रकाशपुंज दिखायी देते हैं, उन सभी प्रकाशमान स्वरूपों को पाण्डुनन्दन अर्जुन ने देखा। जो अपने-अपने अधिष्ठिानों में अपनी ही ज्योति से देदीप्यमान हो रहे थे। उन लोकों में वे सिद्ध राजर्षि वीर निवास करते थे, जो युद्ध में प्राण देकर वहाँ पहुँचे थे। सैकड़ों झुंड-के झुंड तपस्वी पुरुष स्वर्ग में आ रहे थे, जिन्होंने तपस्या द्वारा उस पर विजय पायी थी।

सूर्य के समान प्रकाशमान सहस्रों गन्धर्वों, गुह्यहों, ऋषियों तथा अप्सराओं के समूहों को और उनके स्वतः प्रकाशित होने वाले लोकों को देखकर अर्जुन को बड़ा आश्चर्य होता था। अर्जुन ने प्रसन्नतापूर्वक मातलि से उनके विषय में पूछा, तब मातलि ने उनसे कहा- ‘कुन्तीकुमार! ये वे ही पुण्यात्मा पुरुष हैं, जो अपने-अपने लोकों में निवास करते हैं। विभो! उन्हीं को भूतल पर आपने तारों के रूप में चमकते देखा’। तदनन्तर अर्जुन ने स्वर्गद्वार पर खडे़ हुए सुन्दर विजयी गजराज ऐरावत को देखा, जिसके चार दांत बाहर निकले हुए थे। वह ऐसा जान पड़ता था, मानों अनेक शिखरों से सुशोभित कैलास पर्वत हो। कुरु-पाण्डवशिरोमणि अर्जुन सिद्धों के मार्ग पर आकर वैसे ही शोभा पाने लगे-जैसे पूर्वकाल में भूपालशिरोमणि मान्धाता सुशोभित होते थे। कमलनयन अर्जुन ने उन पुण्यात्मा राजाओं के लोक में भ्रमण किया। इस प्रकार महायशस्वी पार्थ ने स्वर्गलोक में विचरते हुए आगे जाकर इन्द्रपोरी अमरावती का दर्शन किया।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्व में बयालीसवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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