महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-14

षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा देवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! विराट के रमणीय नगर में प्रवेश करते समय महाराज युधिष्ठिर ने मन-ही-मन त्रिभुवन की अधीश्वरी दुर्गा देवी का इस प्रकार स्तवन किया- ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषणों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ। पृथ्वी का भार उतारने वाली पुण्यमयी देवी! तुम सदा सबका कल्याण करने वाली हो। जो लोग तुम्हारा स्मरण करते हैं, निश्चय कर तुम उन्हें पाप और उसके फलस्वरूप होने वाले दुःख से उबार लेती हो; ठीक उसी तरह, जैसे कोई पुरुष कीचड़ में फँसी हुई गाय का उद्धार कर देता है’।

तत्पश्चात् भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर ने देवी के दर्शन की अभिलाषा रखकर नाना प्रकार के स्तुतिपरक नामों द्वारा उन्हें सम्बोधित करके पुनः उनकी स्तुति प्रारम्भ की- ‘इच्छानुसार उत्तम वर देने वाली देवि! तुम्हें नमस्कार है। सच्चिदानन्दमयी कृष्णे! तुम कुमारी और ब्रह्मचारिणी हो। तुम्हारी अंगकान्ति प्रभातकालीन सूर्य के सदृश लाल है। तुम्हारा मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति आल्हाद प्रदान करने वाला है। तुम चार भुजाओं से सुशोभित विष्णुरूपा और चार मुखों से अलंकृत हो। तुम्हारे नितम्ब और उरोज पीन हैं। तुमने मोर पंख का कंगन धारण किया है तथा केयूर और अंगद पहन रक्खे हैं। देवि! भगवान नारायण की धर्मपत्नी लक्ष्मी के समान तुम्हारी शोभा हो रही है। आकाश में विचरने वाली देवि! तुम्हारा स्वरूप और ब्रह्मचर्य परम उज्ज्वल है। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की छवि के समान तुम्हारी श्याम कान्ति है, इसीलिये तुम कृष्णा कहलाती हो। तुम्हारा मुख संकर्षण के समान है। तुम (वर और अभय मुद्रा धारण करने वाली) ऊपर उठी हुई दो विशाल भुजाओं को इन्द्र की ध्वजा के समान धारण करती हो।

तुम्हारे तीसरे हाथ में पात्र, चौथे में कमल आर पाँचवें में घण्टा सुशोभित है। छठे हाथ में पाश, सातवें में धनुष तथा आठवें में महान् चक्र शोभा पाता है। ये ही तुम्हारे नाना प्रकार के आयुध हैं। इस पृथ्वी पर स्त्री का जो विशुद्ध स्वरूप है, वह तुम्हीं हो। कुण्डलमण्डित कर्णयुगल तुम्हारे मुखमण्डल की शोभा बढ़ाते हैं। देवि! तुम चन्द्रमा से होड़ लेने वाले मुख से सुशोभित होती हो। तुम्हारे मस्तक पर विचित्र मुकुट है। बँधे हुए केशों की वेणी साँप की आकृति के समान कुछ और ही शोभा दे रही है। यहाँ कमर में बँधी हुई सुन्दर करधनी के द्वारा तुम्हारी ऐसी शोभा हो रही है, मानो नाग से लपेटा हुआ मगरमच्छ हो। तुम्हारी मयूरपिच्छ से चिह्नित ध्वजा आकाश में ऊँची फहरा रही है। उससे तुम्हारी शोभा और भी बढ़ गयी है। तुमने ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके तीनों लोकों को पवित्र कर दिया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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