महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 123 श्लोक 1-16

त्रयोविंशत्यधिकशततम (123) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयोविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत, ययाति के पूछने पर ब्रह्माजी का अभिमान को ही पतन का कारण बताना तथा नारदजी का दुर्योधन को समझाना

  • नारदजी कहते हैं- प्रचुर दक्षिणा देने वाले उन श्रेष्ठ राजाओं ने राजा ययाति को स्वर्ग पर आरूढ़ कर दिया। राजा ययाति अपने उन दौहित्रों को विदा देकर स्वर्गलोक में जा पहुँचे। (1)
  • वहाँ उनके ऊपर नाना प्रकार के सुगंधयुक्त पुष्पों की वर्षा हुई। पवित्र सौरभ से सुवासित पावन समीर उनका सब ओर से आलिंगन कर रहा था। (2)
  • दौहित्रों के पुण्य फल से प्राप्त हुए अविचल स्थान को पाकर अपने सत्कर्मों से बढ़े हुए राजा ययाति उत्कृष्ट शोभा से प्रकाशित होने लगे। (3)
  • गन्धर्वों और अप्सराओं के समुदायों ने ‘उनके सुयश का’ गान करते हुए उनके समीप नृत्य करके उन्हें प्रसन्न किया। स्वर्गलोक में दुंदुभी आदि वाद्यों की गंभीर ध्वनि के साथ अत्यंत प्रेमपूर्वक उनको अपनाया गया। (4)
  • नाना प्रकार के देवर्षियों, राजर्षियों तथा चारणों ने उनका स्तवन किया। देवताओं ने उत्तम अर्ध्य निवेदन करके उनका पूजन और अभिनंदन किया। (5)
  • इस प्रकार ययाति ने उत्तम स्वर्गफल पाया तदनंतर संतुष्ट एवं शांतचित्त हुए ययाति को अपने मधुर वचनों द्वारा पूर्णत: तृप्त करते हुए से पितामह ब्रहमाजी उनसे इस प्रकार बोले- (6)
  • ‘राजन! तुमने लोकहितकारी सत्कर्म द्वारा चारों चरणों से युक्त धर्म का संग्रह किया;। अत: तुम्हें यह अक्षय स्वर्गलोक प्राप्त हुआ और स्वर्ग में तुम्हारी क्षीण न होने वाली कीर्ति फैल गई। (7)
  • ‘राजर्षे! फिर तुम्हीं ने ‘अभिमानपूर्ण बर्ताव’ से अपने पुण्य का नाश किया था। उस समय समस्त स्वर्गवासियों का चित्त तमोगुण से व्यापात हो गया था, जिससे वे तुम्हें नहीं जानते या नहीं पहचानते थे, अत: सबके लिए अज्ञात होने के कारण तुम स्वर्ग से नीचे गिरा दिये गये। फिर तुम्हारे दौहित्रों ने प्रेमपूर्वक तुम्हें तार दिया है, जिससे तुम पुन: यहाँ आ गये हो। ( (8-9)
  • अब तुमने अपने दौहित्रों द्वारा प्राप्त कर्म से जीते हुए अविचल, शाश्वत, पुण्यमय, उत्तम, ध्रुव तथा अविनाशी स्थान प्राप्त किया है’। (10)
  • ययाति बोले- भगवन! मेरे मन में कोई संदेह है, जिसका निवारण आप ही कर सकते हैं। लोकपितामह! मैं इस प्रश्न को और किसी के सामने रखना उचित नहीं समझता। (11)
  • मैंने कई हजार वर्षों तक अनेकानेक यज्ञों और दानों के द्वारा जिस महान पुण्य फल का उपार्जन किया था और जिसे प्रजापालन रूपी धर्म के द्वारा उत्तरोतर बढ़ाया था, वह सब थोड़े ही समय में नष्ट कैसे हो गया? जिससे मैं यहाँ से नीचे गिरा दिया गया। भगवान! महाद्युते! मुझे मेरे सत्कर्मों द्वारा जो सनातन लोक प्राप्त हुए थे, उन्हें आप जानते हैं। मेरा वह सारा पुण्य सहसा नष्ट कैसे हो गया? (12-13)
  • ब्रह्माजी बोले – राजेन्द्र! तुमने कई हजार वर्षों तक अनेकानेक यज्ञों और दानों के द्वारा जिस पुण्यफल का उपार्जन किया और प्रजापालन रूपी धर्म के द्वारा जिसे उत्तरोत्तर बढ़ाया, वह सब इस अभिमान रूपी दोष के कारण ही नष्ट हो गया था, जिससे तुम नीचे गिराए गये। तुम्हारे अभिमान के ही कारण स्वर्गलोक के निवासियों ने तुम्हें धिक्कार दिया था। (14-15)
  • राजर्षे! यह पुण्यलोक न अभिमान से, न बल से, न हिंसा से, न शठता से और न भाँति-भाँति की मायाओं से ही सुस्थिर होता है। (16)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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