महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-16

अष्टम (8) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

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महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


धृतराष्ट्र का कुरुजांगल देश की प्रजा से वन में जाने के लिये आज्ञा माँगना

युधिष्ठिर बोले- "पृथ्वीनाथ! नृपश्रेष्ठ! आप जैसा कहते हैं, वैसा ही करूँगा। अभी आप मुझे कुछ और उपदेश दीजिये। भीष्म जी स्वर्ग सिधारे, भगवान श्रीकृष्ण द्वारका पधारे और विदुर तथा संजय भी आपके साथ ही जा रहे हैं। अब दूसरा कौन रह जाता है, जो मुझे उपदेश दे सके। भूपाल! पृथ्वीपते! आज मेरे हितसाधन में संलग्न होकर आप मुझे यहाँ जो कुछ उपदेश देते हैं, मैं उसका पालन करूँगा। आप संतुष्ट हों।"

वैशम्पायन जी कहते हैं- भरतश्रेष्ठ! बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर राजर्षि धृतराष्ट्र ने कुन्तीकुमार से जाने के लिये अनुमति लेने की इच्छा की और कहा- "बेटा! अब शान्त रहो। मुझे बोलने में बड़ा परिश्रम होता है (अब तो मैं जाने की ही अनुमति चाहता हूँ)।" ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र ने उस समय गांधारी के भवन में प्रवेश किया। वहाँ जब वे आसन पर विराजमान हुए, तब समय का ज्ञान रखने वाली धर्मपरायणा गांधारी देवी ने उस समय प्रजापति के समान अपने पति से इस प्रकार पूछा- "महाराज! स्वयं महर्षि व्यास ने आपको वन में जाने की आज्ञा दे दी है और युधिष्ठिर की भी अनुमति मिल ही गयी है। अब आप कब वन को चलेंगे?" धृतराष्ट्र ने कहा- "गांधारी! मेरे महात्मा पिता व्यास ने स्वयं तो आज्ञा दे ही दी है, युधिष्ठिर की भी अनुमति मिल गयी है; अतः अब मैं जल्दी ही वन को चलूँगा। जाने के पहले मैं चाहता हूँ कि समस्त प्रजा को घर पर बुलाकर अपने मरे हुए उन जुआरी पुत्रों के उद्देश्य से उनके पारलौकिक लाभ के लिये कुछ धन दान कर दूँ।"

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र ने धर्मराज युधिष्ठिर के पास अपना विचार कहला भेजा। राजा युधिष्ठिर ने देने के लिये उनकी आज्ञा के अनुसार वह सब सामग्री जुटा दी (धृतराष्ट्र ने उसका यथायोग्य वितरण कर दिया)। उधर राजा का संदेश पाकर कुरुजांगल देश के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वहाँ आये। उन सबके हृदय में बड़ी प्रसन्नता थी। तदनन्तर महाराज धृतराष्ट्र अन्तःपुर से बाहर निकले और वहाँ नगर तथा जनपद की समस्त प्रजा के उपस्थित होने का समाचार सुना। भूपाल जनमेजय! राजा ने देखा कि समस्त पुरवासी और जनपद के लोग वहाँ आ गये हैं। सम्पूर्ण सुहृद् वर्ग के लोग भी उपस्थित हैं और नाना देशों के ब्राह्मण भी पधारे हैं। तब बुद्धिमान अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने उन सबको लक्ष्य करके कहा- "सज्जनों! आप और कौरव चिरकाल से एक साथ रहते आये हैं। आप दोनों एक-दूसरे के सुहृद् हैं और दोनों सदा एक-दूसरे के हित में तत्पर रहते हैं। इस समय मैं आप लोगों से वर्तमान अवसर पर जो कुछ कहूँ, मेरी उस बात को आप लोग बिना विचारे स्वीकार करें; यही मेरी प्रार्थना है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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