महाभारत वन पर्व अध्याय 39 श्लोक 1-20

एकोनचत्‍वारिंश (39) अध्‍याय: वन पर्व (कैरात पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोनचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् शंकर और अर्जुन का युद्ध, अर्जुन का उस पर प्रसन्न होना एवं अर्जुन के द्वारा भगवान् शंकर की स्तुति

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उन सब तपस्वी महात्माओं के चले जाने पर सर्वपापहारी, पिनाकपाणि, भगवान शंकर किरात वेष धारण करके सुवर्णमय वृक्ष के सदृश दिव्य कांति से उद्भासित होने लगे। उनका शरीर दूसरे मेरु पर्वत के समान दीप्तिमान् और विशाल था। वे एक शोभायमान धनुष और सर्पों के समान विषाक्त बाण लेकर बड़े वेग से चले। मानों साक्षात् अग्निदेव ही देह धारण करके निकले हों। उनके साथ भगवती उमा भी थी, जिनका व्रत और वेष भी उन्हीं के समान था। अनेक प्रकार के वेष धारण किये भूतगण भी प्रसन्नतापूर्वक उनके पीछे हो लिये थे। इस प्रकार किरात वेष में छिपे हुए श्रीमान् शिव सहस्रों स्त्रियों से घिरकर बड़ी शोभा पा रहे थे।

भरतवंशी राजन्! उस समय वह प्रदेश उन सब के चलने-फिरने से अत्यन्त सुशोभित हो रहा था। एक ही क्षण में वह सारा वन शब्दरहित हो गया। झरनों और पक्षियों तक की आवाज बंद हो गयी। अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले कुन्तीपुत्र अर्जुन के निकट आकर भगवान् शंकर ने अद्भुत दीखने वाले मूक नामक अद्भुत दानव को देखा, जो सूअर का रूप धारण करके अत्यन्त तेजस्वी अर्जुन को मार डालने का उपाय सोच रहा था; उस समय अर्जुन ने गाण्डीव धनुष और विषैले सर्पों के समान भयंकर बाण हाथ में ले धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर उसकी टंकार से दिशाओं को प्रतिध्वनित करके कहा- ‘अरे! तू यहाँ आये हुए मुझ निरपराध को मारने की घात में लगा हैं, इसीलिये मैं आज पहले ही तुझे यमलोक भेज दूंगा’। सृदढ़ धनुष वाले अर्जुन को प्रहार के लिये उद्यत देख किरातरूपधारी भगवान् शंकर ने उन्हें सहसा रोका और कहा- ‘इन्द्रकील पर्वत के समान कांति वाले इस सूअर को पहले से ही मैंने अपना लक्ष्य बना रखा है, अतः तुम न मारो’। परन्तु अर्जुन ने किरात के वचन की अवहेलना करके उस पर प्रहार कर ही दिया। साथ ही महातेजस्वी किरात ने भी उसी एकमात्र लक्ष्य पर बिजली और अग्निशिखा के समान तेजस्वी बाण छोड़ा। उन दोनों के छोड़े हुए वे दोनों बाण एक ही साथ मूक दानव के पर्वत-सदृश विशाल शरीर में लगे। जैसे पर्वत पर बिजली की गड़गड़ाहट और वज्रपात का भयंकर शब्द होता है, उसी प्रकार उन दोनों बाणों के आघात का शब्द हुआ। इस प्रकार प्रज्वलित मुख वाले सर्पों के समान अनेक बाणों से घायल होकर वह दानव फिर अपने राक्षस रूप को प्रकट करते हुए मर गया।

इसी समय शत्रुनाशक अर्जुन ने सुवर्ण के समान कांतिमान् एक तेजस्वी पुरुष को देखा, जो स्त्रियों के साथ आकर अपने को किरातवेष में छिपाये हुए थे। तब कुन्तीकुमार ने प्रसन्नचित्त होकर हंसते हुए-से-कहा- ‘आप कौन हैं, जो इन सूने वन में स्त्रियों से घिरे हुए घूम रहे हैं? सुवर्ण के समान दिप्तिमान् पुरुष! क्या आपको इस भयानक वन में भय नहीं लगता? यह सूअर तो मेरा लक्ष्य था, आपने क्यों उस पर बाण मारा? यह राक्षस पहले यहीं मेरे पास आया था और मैंने इसे काबू में कर लिया था। आपने किसी कामना से इस शूकर को मारा हो या मेरा तिरस्कार करने के लिये। किसी दशा में भी मैं आपको जीवित नहीं छोडूंगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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