महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 89 श्लोक 1-16

एकोननवतितम (89) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

Prev.png

महाभारत: द्रोण पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन के द्वारा दुर्मर्षण की गजसेना का संहार और समस्त सैनिकों का पलायन

  • अर्जुन बोले- हृषीकेश! जहाँ दुर्मर्षण खड़ा है, उसी ओर घोड़ों को बढ़ाइये। मैं उसकी इस गजसेना का भेदन करके शत्रुओं की विशालवाहिनी में प्रवेश करूँगा। (1)
  • संजय कहते हैं-राजन! सव्यसाची अर्जुन के ऐसा कहने पर महाबाहु श्रीकृष्ण ने, जहाँ दुर्मर्षण खड़ा था, उसी ओर घोड़ों को हाँका। (2)
  • उस समय एक वीर का बहुत-से योद्धाओं के साथ बड़ा भयंकर घमासान युद्ध छिड़ गया, जो रथों, हाथियों और मनुष्यों का संहार करने वाले था। (3)
  • तदनन्तर अर्जुन बाणों की वर्षा करते हुए जल बरसाने वाले मेघ के समान प्रतीत होने लगे। जैसे मेघ पानी की वर्षा करके पर्वतों को आच्छादित कर देता है, उसी प्रकार अर्जुन ने अपनी बाणवर्षा से शत्रुओं को ढक दिया। (4)
  • उधर उन समस्त कौरव रथियों ने भी सिद्धहस्त पुरुषों की भाँति शीघ्रतापूर्वक अपने बाणसमूहों द्वारा वहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन को आच्छादित कर दिया। (5)
  • उस समय युद्धस्थ में शत्रुओं के द्वारा रोके जाने पर महाबाहु अर्जुन कुपित हो उठे और अपने बाणों द्वारा रथियों के मस्तकों उनके शरीरों से गिराने लगे। (6)
  • कुण्डल और टोपों सहित उन रथियों के घूमते हूए नेत्रों तथा दाँतों द्वारा चबाये जाते हुए ओठों वाले सुन्दर मुखों से सारी रणभूमि पट गयी। (7)
  • सब ओर बिखरे हुए योद्धाओं के मुख कटकर गिरे हुए कमल-समूहों के समान सुशोभित होने लगे। (8)
  • सुवर्णमय कवच धारण किये और खून से लथपथ हो एक दूसरे से सटे हुए हताहत योद्धाओं के शरीर विद्युतसहित मेघसमूहों के समान दिखायी देते थे। (9)
  • राजन! काल से परिपक्व हुए ताड़ के फलों के पृथ्वी पर गिरने से जैसा शब्द होता है, उसी प्रकार रणभूमि में कटकर गिरते हुए योद्धाओं के मस्तकों का शब्द होता था। (10)
  • कोई-कोई कबन्ध[1] धनुष लेकर खड़ा था और कोई तलवार खींचकर उसे हाथ में उठाये खड़ा हुआ था। (11)
  • संग्राम में विजय की अभिलाषा रखने वाले कितने ही श्रेष्‍ठ पुरुष कुन्तीपुत्र अर्जुन के प्रति अमर्षशील होकर यह भी न जान पाये कि उनके मस्तक कब कटकर गिर गये। (12)
  • घोड़ों के मस्तकों, हाथियों की सूँड़ों और वीरों की भुजाओं तथा सिरों से सारी रणभूमि आच्छादित हो गयी थी। (13)
  • प्रभो! आपकी सेनाओं के समस्त योद्धओं की दृष्टि में सब ओर अर्जुनमय-सा हो रहा था। वे बार-बार 'यह अर्जुन है, कहाँ अर्जुन है? यह अर्जुन है' इस प्रकार चिल्ला उठते थे। (14)
  • बहुत-से दूसरे सैनिक आपस में ही एक दूसरे पर तथा अपने ऊपर भी प्रहार कर बैठते थे। वे काल से मोहित होकर सारे संसार को अर्जुनमय ही मानने लगे। (15)
  • बहुत-से वीर रक्त से भीगे शरीर से धराशायी होकर गहरी वेदना के कारण कराहते हुए अपनी चेतना खो बैठते थे और कितने ही योद्धा धरती पर पड़े-पड़े अपने बन्धु-बान्धवों को पुकार रहे थे। (16)

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बिना सिर का धड़

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः