महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 142 श्लोक 1-7

द्विचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: द्विचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद


उमा-महेश्वर संवाद, वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा

पार्वती ने कहा- भगवन! नियमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले एकाग्रचित्त वानप्रस्थी महात्मा नदियों के रमणीय तट प्रदेशों में, झरनों में, सरिताओं के तटवर्ती निकुंजों में, पर्वतों पर, वनों में और फल-मूल से सम्पन्न पवित्र स्थानों में निवास करते हैं। कल्याणकारी देवेश्वर! वानप्रस्थी महात्मा अपने शरीर को ही कष्ट पहुँचाकर जीवन-निर्वाह करते हैं, अतः उनके पालन करने योग्य जो पवित्र कर्तव्य या नियम हैं, उसी को मैं सुनना चाहती हूँ।

भगवान महेश्वर ने कहा- देवि! (गृहस्थ एवं) वानप्रस्थों का जो धर्म है, उसको मुझसे एकाग्रचित्त होकर सुनो और सुनकर एकचित्त हो अपनी बुद्धि को धर्म में लगाओ। नियमों का पालन करके सिद्ध हुए वनवासी साधु वानप्रस्थों को यह कर्म करना चाहिये। कैसा कर्म? यह बताता हूँ, सुनो।

मनुष्य पहले गृहस्थ होकर पुत्रों के उत्पादन द्वारा पितरों के ऋण से उऋण हो पत्नी से सम्पन्न होने वाले कार्य की पूर्ति करके धर्म सम्पादन के लिये गृह का परित्याग कर दे। मन को धैर्यपूर्वक स्थिर करके मनुष्य दृढ़ निश्चय के साथ निर्द्वन्द्व (एकाकी) होकर अथवा स्त्री को साथ रखकर वनवास के लिये प्रस्थान करे। नदी और वन से युक्त जो परम पुण्यमय प्रदेश हैं, वे प्रायः अज्ञान से मुक्त और तीर्थों तथा देवस्थानों से सुशोभित हैं। उनमें जाकर विधि का ज्ञान प्राप्त करके क्रमशः ऋषिधर्म की दीक्षा ग्रहण करे और दीक्षित होने के पश्चात एकचित्त हो परिचर्या आरम्भ करे। सबेरे उठना, शौचाचार का पालन करना, सब देवताओं को मस्तक झुकाना, शरीर में गाय का गोबर लगाकर नहाना, दोष और प्रमाद का त्याग करना, सायंकाल और प्रातःकाल स्नान एवं विधिवत् अग्निहोत्र करना, ठीक समय पर शौचाचार का पालन करना, सिर पर जटा और कटि प्रदेश में वल्कल धारण करना, समिधा और पुष्प का संग्रह करने के लिये सदा वन में विचरना, समय पर नीवार से आग्रयण कर्म (नवशस्येष्टि यज्ञ का सम्पादन) करना, साग और मूल का संकलन करना तथा सदा अपने घर को शुद्ध रखना- आदि कार्य वानप्रस्थ मुनि के लिये अभीष्ट हैं। इनसे उसके धर्म की सिद्धि होती है।

पहले अतिथियों के सम्मुख जाये, फिर सदा उनकी सेवा में तत्पर रहे। पाद्य और आसन आदि के द्वारा उनकी पूजा करके उन्हें भोजन के लिये बुलावे। समय पर ऐसी वस्तुओं से रसोई बनावे, जो गाँव में पैदा न हुई हों। उस रसोई के द्वारा पहले देवताओं और पितरों का पूजन करे। तत्पश्चात अतिथि को सत्कारपूर्वक भोजन करावे। ऐसा करने वाले वानप्रस्थ को सनातन धर्म की सिद्धि प्राप्त होती है। धर्मासन पर बैठे हुए शिष्ट पुरुषों द्वारा उसे धर्मार्थयुक्त कथाएँ सुननी चाहिये। उसे अपने लिये पृथक आश्रम बना लेना चाहिये। वह पृथ्वी अथवा प्रस्तर की शय्या पर सोये। वानप्रस्थ मुनि व्रत और उपवास में तत्पर रहे, दूसरों पर क्षमा का भाव रखे, अपनी इन्द्रियों को वश में करे। दिन-रात यथासम्भव शौचाचार का पालन करके धर्म का चिन्तन करे। उन्हें दिन में तीन बार स्नान, पितरों और देवताओं का पूजन, अग्निहोत्र तथा विधिवत यज्ञ करने चाहिये। वानप्रस्थ को जीविका के लिये नीवार (तिन्नी का चावल) और फल-मूल का सेवन करना चाहिये तथा शरीर में स्निग्धता लाने या तेल से होने वाले कार्यों के निर्वाह के लिये इंगुद और रेड़ी के तेल का सेवन करना उचित है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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