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महाभारत: सभा पर्व: नवम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद
वरुण की सभा का वर्णन
- नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! वरुण देव की दिव्य सभा अपनी अनन्त कान्ति से प्रकाशित होती रहती है। उसकी भी लम्बाई-चौड़ाई मान वही है, जो यमराज की सभा का है। उसके परकोटे और फाटक बड़े सुन्दर हैं। (1)
- विश्वकर्मा ने उस सभा को जल के भीतर रहकर बनाया है। वह फल-फूल देने वाले दिव्य रत्नमय वृक्षों से सुशोभित होती है। (2)
- उस सभा के भिन्न-भिन्न प्रदेश नीले-पीले, काले, सफेद और लाल रंग के लतागुल्मों से आच्छादित हैं। उन लताओं ने मनोहर मञ्जरीपुञ्ज धारण कर रक्खे हैं। (3)
- सभा भवन के भीतर विचित्र और मधुर स्वर से बोलने-वाले सैकड़ो-हजारों पक्षी चहकते रहते हैं। उनके विलक्षण रूप-सौन्दर्य का वर्णन नहीं हो सकता। उनकी आकृति बड़ी सुन्दर है। (4)
- वरुण की सभा का स्पर्श बड़ा ही सुखद है, वहाँ न सर्दी है, न गर्मी। उसका रंग श्वेत है, उसमें कितने ही कमरे और आसन[1] सजाये गये हैं। वरुण जी के द्वारा सुरक्षित वह सभा बड़ी रमणीय जान पड़ती है। (5)
- उसमें दिव्य रत्नों और वस्त्रों को धारण करने वाले तथा दिव्य अलंकारों से अलंकृत वरुणदेव वारूणी देवी के साथ विराजमान होते हैं। (6)
- उस सभा में दिव्य हार, दिव्य सुगन्ध तथा दिव्य चन्दन का अंगराग धारण करने वाले आदित्यगण जल के स्वामी वरुण की उपासना करते हैं। (7)
- वासुकि नाग, तक्षक, ऐरावतनाग, कृष्ण, लोहित, पद्म और पराक्रमी चित्र। (8)
- कम्बल, अश्वतर, धृतराष्ट्र, बलाहक, मणिनाग, नाग, मणि, शंखनख, कौरव्य, स्वस्तिक, एलापत्र, वामन, अपराजित, दोष, नन्दक, पूरण, अभीक, शिभिक, श्वेत, भद्र, भद्रेश्वर, मणिमान, कुण्डधार, कर्कोटक, धनञ्जय। (9)
- पाणिमान, बलवान, कुण्डधार, प्रह्राद, मूषिकाद, जनमेजय आदि नाग जो पताका, मण्डल और फणों से सुशोभित वहाँ उपस्थित होते हैं, महानाग भगवान अनन्त भी वहाँ स्थित होते हैं, जिन्हें देखते ही जल के स्वामी वरुण आसन आदि देते और सत्कार पूर्वक उन का पूजन करते हैं। वासुकि आदि सभी नाग हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े होते और भगवान शेष की आज्ञा पाकर यथायोग्य आसनों पर बैठकर वहाँ शोभा बढ़ाते हैं। युधिष्ठिर! ये तथा और भी बहुत-से नाग उस सभा में क्लेशरहित हो महात्मा वरुण की उपासना करते हैं। (10-11)
- विरोचन पुत्र राजा बलि, पृथ्वी विजयी नरकासुर, प्रह्लाद, विप्रचित्ति, कालखञ्ज दानव, सुहनु, दुर्मुख, शंख, सुमना, सुमति, घटोदर, महापार्श्व, क्रथन, पिठर, विश्वरूप, स्वरूप, विरूप, महाशिरा, दशमुख रावण, वाली, मेघवासा, दशावर, टिट्टिभ, विटभूत, संह्राद तथा इन्द्रतापन आदि सभी दैत्यों और दानवों के समुदाय मनोहर कुण्डल, सुन्दर हार, किरीट तथा दिव्य वस्त्रा भूषण धारण किये उस सभा में धर्मपाशधारी महात्मा वरुण देव की सदा उपासना करते हैं। वे सभी दैत्य वरदान पाकर शौर्यसम्पन्न हो मृत्यु-रहित हो गये हैं। उनका चरित्र एवं व्रत बहुत उत्तम है। (12-17)
- चारों समुद्र, भागीरथी नदी, कालिन्दी, विदिशा, वेणा, नर्मदा, वेगवाहिनी। (18)
- विपाशा, शतद्रु, चन्द्रभागा, सरस्वती, इरावती, वितस्ता, सिन्धु, देवनदी। (19)
- गोदावरी, कृष्णवेणा, सरिताओं में श्रेष्ठ कावेरी, किम्पुना, विशल्या, वैतरणी। (20)
- तृतीया, ज्येष्ठिला, महानद शोण, चर्मण्वती, पर्णाशा, महानदी। (21)
- सरयू, वारवत्या, सरिताओं में श्रेष्ठ लांगली, करतोया, आत्रेयी, महानद लौहित्य। (22)
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