महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 69 श्लोक 1-16

एकोनसप्‍ततितम (69) अध्याय: द्रोण पर्व ( अभिमन्‍युपर्व )

Prev.png

महाभारत: द्रोण पर्व: एकोनसप्‍ततितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

राजा पृथु का चरित्र

  • नारद जी कहते हैं– सृंजय! वेन के पुत्र राजा पृथु भी जीवित नहीं रह सके, यह हमने सुना है। महर्षियों ने राजसूय-यज्ञ में उन्‍हें सम्राट के पद पर अभिषिक्‍त किया था। (1)
  • ‘ये समस्‍त शत्रुओं को पराजित करके अपने प्रयत्‍न से प्रथित[1] होंगे’– ऐसा महर्षियों ने कहा था। इसलिये वे ‘पृथु’ कहलाये। ऋषियों ने यह भी कहा कि ‘ये क्षत से हमारा त्राण करेंगे’, इसलिये वे ‘क्षत्रिय’ इस सार्थक नाम से प्रसिद्ध हुए। (2)
  • वेनकुमार पृथु को देखकर प्रजा ने कहा, हम इनमें अनुरक्‍त हैं। इसलिये उस प्रजारंजन जनित अनुराग के कारण उनका नाम ‘राजा’ हुआ। (3)
  • वेननन्‍दन पृथु के लिये यह पृथ्वी कामधेनु हो गयी थी। उनके राज्‍य में बिना जोते ही पृथ्‍वी से अनाज पैदा होता था। उस समय सभी गौएँ कामधेनु के समान थीं। पत्‍ते-पत्‍ते में मधु भरा रहता था। (4)
  • कुश सुवर्णमय होते थे। उनका स्‍पर्श कोमल था और वे सुखद जान पड़ते थे। उन्‍हीं के चीर बनाकर प्रजा उनसे अपना शरीर ढकती थी तथा उन कुशों की ही चटाइयों पर सोती थी। (5)
  • वृक्षों के फल अमृत के समान मधुर और स्‍वादिष्‍ट होते थे। उन दिनों उन फलों का ही आहार किया जाता था। कोई भी भूखा नहीं रहता था। (6)
  • सभी मनुष्‍य नीरोग थे। सबकी सारी इच्‍छाएँ पूर्ण होती थीं और उन्हें कहीं से भी कोई भय नहीं था। वे अपनी इच्‍छा के अनुसार वृक्षों के नीचे और पर्वतों की गुफाओं में निवास करते थे। (7)
  • उस समय राष्‍ट्रों और नगरों का विभाग नहीं था। सबको इच्‍छानुसार सुख और भोग प्राप्‍त थे। इससे यह सारी प्रजा प्रसन्‍न थी। (8)
  • राजा पृथु जब समुद्र में यात्रा करते थे, तब पानी थम जाता था और पर्वत उन्‍हें जाने के लिये मार्ग दे देते थे। उनके रथ की ध्वजा कभी खण्डित नहीं हुई थी। (9)
  • एक दिन सुखपूर्वक बैठे हुए राजा पृथु के पास वनस्‍पति, पर्वत, देवता, असुर, मनुष्‍य, सर्प, सप्तर्षि, पुण्‍यजन (यक्ष), गन्धर्व, अप्सरा तथा पितरों ने आकर इस प्रकार कहा– ‘महाराज! तुम हमारे सम्राट हो, क्षत्रिय हो तथा राजा, रक्षक और पिता हो। तुम हमें अभीष्‍ट वर दो, जिससे हम लोग अनन्‍त काल तक तृप्ति और सुख का अनुभव करें। तुम ऐसा करने में समर्थ हो।' (10-12)
  • ‘बहुत अच्‍छा‘ ऐसा ही होगा, यह कहकर वेनकुमार पृथु ने अपना आजगव नामक धनुष और जिनकी कहीं तुलना नहीं थी, ऐसे भयंकर बाण हाथ में ले लिये और कुछ सोचकर पृथ्‍वी से कहा। (13)
  • ‘वसुधे! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। आओ-आओ, इन प्रजाजनों के लिये शीघ्र ही मनोवांछित दूध की धारा बहाओ। तब मैं जिसका जैसा अभीष्‍ट अन्‍न है, उसे वैसा दे सकूँगा।' (14)
  • वसुधा बोली– वीर! तुम मुझे अपनी पुत्री मान लो, तब जितेन्द्रिय राजा पृथु ने ‘तथास्‍तु’ कहकर वहाँ सारी आवश्‍यक व्‍यवस्‍था की। (15)
  • तदनन्‍तर प्राणियों के समुदाय ने उस समय वसुधा को दुहना आरम्‍भ किया। सबसे पहले दूध की इच्‍छा वाले वनस्‍पति उठे। (16)

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विख्‍यात

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः