अष्टविंश (28) अध्याय: वन पर्व (अरण्य पर्व)
महाभारत: वन पर्व: अष्टविंश अध्याय: श्लोक 1- 20 का हिन्दी अनुवाद
द्रौपदी कहती है- महाराज! इस विषय में प्रह्लाद तथा विरोचनपुत्र बलि के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। असुरों के स्वामी परम बुद्धिमान दैत्यराज प्रह्लाद सभी धर्मों के रहस्य को जानने वाले थे। एक समय बलि ने उन अपने पितामह प्रह्लाद जी से पूछा। बलि ने पूछा- 'तात! क्षमा और तेज में से क्षमा श्रेष्ठ है अथवा तेज? यह मेरा संशय है। मैं इसका समाधान पूछता हूँ। आप इस प्रश्न का यथार्थ निर्णय कीजिये। धर्मज्ञ! इनमें जो श्रेष्ठ है, वह मुझे अवश्य बताइये, मैं आपके सब आदेशों का यथावत पालन करूँगा।' बलि के इस प्रकार पूछने पर समस्त सिद्धान्तों के ज्ञाता विद्वान पितामह प्रह्लाद ने संदेश निवारण करने के लिये पूछने वाले पौत्र के प्रति इस प्रकार कहा। प्रह्लाद बोले- 'तात! न तो तेज ही सदा श्रेष्ठ है और न क्षमा ही। इन दोनों के विषय में मेरा ऐसा ही निश्चय जानो, इसमें संशय नहीं है। वत्स! जो सदा क्षमा ही करता है, उसे अनेक दोष प्राप्त होते हैं। उसके भृत्य, शत्रु तथा उदासीन व्यक्ति सभी उसका तिरस्कार करते हैं। कोई भी प्राणी कभी उसके सामने विनयपूर्ण बर्ताव नहीं करते, अतः तात! सदा क्षमा करना विद्वानों के लिये भी वर्जित है। सेवकगण उसकी अवहेलना करके बहुत-से अपराध करते हैं। इतना ही नहीं, वे मूर्ख भृत्यगण उसके धन को भी हड़प लेने का हौंसला रखते हैं। विभिन्न कार्यों में नियुक्त किये हुए मूर्ख सेवक अपनी इच्छानुसार क्षमाशील स्वामी के रथ, वस्त्र, अलंकार, शय्या, आसन, भोजन, पान तथा समस्त सामग्रियों का उपयोग करते रहते हैं तथा स्वामी की आज्ञा होने पर भी किसी को देने योग्य वस्तुएँ नहीं देते हैं। स्वामी का जितना आदर होना चाहिये, उतना आदर वे किसी प्रकार भी नहीं करते। इस संसार में सेवकों द्वारा अपमान तो मृत्यु से भी अधिक निन्दित है। तात! उपर्युक्त क्षमाशील को अपने सेवक, पुत्र, भृत्य, तथा उदासीन वृत्ति के लोग कटुवचन भी सुनाया करते हैं। इतना ही नहीं, वे क्षमाशील स्वामी की अवहेलना करके उसकी स्त्रियों को भी हस्तगत करना चाहते हैं और वैसे पुरुष की मूर्ख स्त्रियाँ भी स्वेच्छाचार में प्रवृत्त हो जाती हैं। यदि उन्हें अपने स्वामी से तनिक भी दण्ड नहीं मिलता तो वे सदा उड़ती हैं और आचार से दूषित हो जाती हैं। दुष्टा होने पर वे अपने स्वामी का अपकार भी कर बैठती हैं। सदा क्षमा करने वाले पुरुषों को ये तथा और भी बहुत-से दोष प्राप्त होते हैं। विरोचनकुमार! अब क्षमा न करने वालों के दोषों को सुनो। क्रोधी मनुष्य रजोगुण से आवृत्त होकर योग्य या अयोग्य अवसर का विचार किये बिना ही अपने उत्तेजित स्वभाव से लोगों को नाना प्रकार के दण्ड देता रहता है। तेज (उत्तेजना) से व्याप्त मनुष्य मित्रों से विरोध पैदा कर लेता है तथा साधारण लोगों और स्वजनों का द्वेषपात्र बन जाता है। वह मनुष्य दूसरों का अपमान करने के कारण सदा धन की हानि उठाता है। इतना ही नहीं, वह संताप, द्वेष, मोह तथा नये-नये शत्रु पैदा कर लेता है। मनुष्य क्रोधवश अन्यायपूर्वक दूसरे लोगों पर नाना प्रकार के दण्ड का प्रयोग करके अपने ऐश्वर्य, प्राण और स्वजनों से भी हाथ धो बैठता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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