षडविंश (26) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)
महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: षडविंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! धृतराष्ट्र के इस प्रकार कुशल समाचार पूछने पर बातचीत करने में कुशल न्याय-वेत्ता राजा युधिष्ठिर ने इस प्रकार कहा- "युधिष्ठिर बोले- 'राजन! (मेरे यहाँ सब कुशल है) आपके तप, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह आदि सद्गुणों की वृद्धि हो रही है न? ये मेरी माता कुन्ती आपकी सेवा-शुश्रूषा करने में क्लेश का अनुभव तो नहीं करतीं? क्या इनका वनवास सफल होगा? ये मेरी बड़ी माता गांधारी देवी सर्दी, हवा और रास्ता चलने के परिश्रम से कष्ट पाकर अत्यन्त दुबली हो गयी हैं घोर तपस्या में लगी हुई हैं। ये देवी युद्ध में मारे गये अपने क्षत्रिय धर्मपरायण महापराक्रमी पुत्रों के लिये कभी शोक तो नहीं करतीं? और हम अपराधियों का कभी कोई अनिष्ट तो नहीं सोचती हैं? राजन! ये संजय तो कुशलपूर्वक स्थिरभाव से तपस्या में लगे हुए हैं न? इस समय विदुर जी कहाँ हैं? इन्हें हम लोग नहीं देख पा रहे हैं।" वैशम्पायन जी कहते हैं - राजा युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर धृतराष्ट्र ने उनसे कहा- "बेटा! विदुर जी कुशलपूर्वक हैं। वे बड़ी कठोर तपस्या में लगे हैं। वे निरन्तर उपवास करते और वायु पीकर रहते हैं, इसलिये अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं। उनके सारे शरीर में व्याप्त हुई नस-नाड़ियाँ स्पष्ट दिखायी देती हैं। इस सूने वन में ब्राह्मणों को कभी-कभी कहीं उनके दर्शन हो जाया करते हैं।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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