महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 272 श्लोक 13-20

दिसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (272) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: दिसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 13-20 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद


सत्‍य सावित्री देवी की ओर हाथ जोड़कर खड़ा था। इतने ही में उस हरिण ने पुन: अपनी आहुति देने के लिये याचना की। सत्‍य ने मृग को हृदय से लगा लिया और बड़े प्‍यार से कहा- 'तुम यहाँ से चले जाओ'। तब वह हरिण आठ पग आगे जा कर लौट पड़ा और बोला- 'सत्‍य! तुम विधिपूर्वक मेरी हिंसा करो। मैं यज्ञ में वध को प्राप्‍त होकर उत्तम गति पा लूँगा। मैंने तुम्‍हें दिव्‍यदृष्टि प्रदान की है; उससे देखो, आकाश में वे दिव्‍य अप्‍सराएँ खड़ी हैं। महात्‍मा गन्‍धर्वों के विचित्र विमान भी शोभा पा रहे हैं।' सत्‍य की आँखें बड़ी चाह से उधर ही जा लगीं।

उसने बड़ी देर तक वह रमणीय दृश्‍य देखा, फिर मृग की ओर दृष्टिपात करके 'हिंसा करने पर ही मुझे स्‍वर्गवास का सुख मिल सकता है' यह मन-ही-मन निश्‍चय किया। वास्‍तव में उस मृग के रूप में साक्षात् धर्म थे, जो मृग का शरीर धारण करके बहुत वर्षों से वन में निवास करते थे। पशुहिंसा यज्ञ की विधि के प्रतिकूल कर्म है। भगवान धर्म ने उस ब्राह्मण का उद्धार करने का विचार किया। मैं उस पशु का वध करके स्‍वर्गलोक प्राप्‍त करूँगा; यह सोचकर मृग की हिंसा करने के लिये उद्यत उस ब्राह्मण का महान् तप तत्‍काल नष्‍ट हो गया।

इसलिये हिंसा यज्ञ के लिये हितकर नहीं है। तदनन्‍तर भगवान धर्म ने स्‍वयं सत्‍य का यज्ञ कराया। फिर सत्‍य ने तपस्‍या करके अपनी पत्‍नी पुष्करधारिणी के मन की जैसी स्थिति थी, वैसा ही उत्तम समाधान प्राप्‍त किया (उसे यह दृढ़ निश्‍चय हो गया कि हिंसा से बड़ी हानि होती है, अहिंसा ही परम कल्‍याण का साधन है)। अहिंसा ही सम्‍पूर्ण धर्म है। हिंसा अधर्म है और अधर्म अहितकारक होता है। अब मैं तुम्‍हें सत्‍य का महत्त्व बताऊँगा, जो सत्‍यवादी पुरुषों का परम धर्म है।


इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में हिंसात्‍मक यज्ञ की निन्‍दा नामक दो सौ बहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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