पंचदश (15) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: पंचदश अध्याय: श्लोक 22-35 का हिन्दी अनुवाद
कुरुनन्दन! कुन्तीकुमार! मैं सच्ची बात बता रहा हूँ, मैंने जो कुछ किया या कहा है, वह सब तुम्हारी प्रसन्नता के लिये और तुम्हारे ही हित की दृष्टि से किया है। यह किसी तरह मिथ्या नहीं है। अर्जुन! यहाँ मेरे रहने का जो प्रयोजन था, वह पूरा हो गया है। धृतराष्ट्र का पुत्र राजा दुर्योधन अपनी सेना और सेवकों के साथ मारा गया। तात! पाण्डुनन्दन! नाना प्रकार के रत्नों के संचय से सम्पन्न, समुद्र से घिरी हुई, पर्वत, वन और काननों सहित यह सारी पृथ्वी भी बुद्धिमान धर्मपुत्र युधिष्ठिर के अधीन हो गयी। भरतश्रेष्ठ! बहुत से सिद्ध महात्माओं के संग से सुशोभित तथा वन्दीजनों के द्वारा सदा ही प्रशंसित होते हुए धर्मज्ञ राजा युधिष्ठिर अब धर्मपूर्वक सारी पृथ्वी का पालन करें। कुरुश्रेष्ठ! अब तुम मेरे साथ चलकर राजा को बधाई दो और मेरे द्वारका जाने के विषय में उनसे पूछकर आज्ञा दिला दो। पार्थ! मेरे घर में जो कुछ धन-सम्पत्ति है, वह और मेरा यह शरीर सदा धर्मराज युधिष्ठिर की सेवा में समर्पित है। परम बुद्धिमान कुरुराज युधिष्ठिर सर्वदा मेरे प्रिय और माननीय हैं। राजकुमार! अब तुम्हारे साथ मन बहलाने के सिवा यहाँ मेरे रहने का और कोई प्रयोजन नहीं रह गया है। पार्थ! यह सारी पृथ्वी तुम्हारे और सदाचारी गुरु युधिष्ठिर शासन में पूर्णत: स्थित है। पृथ्वीनाथ! उस समय महात्मा भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अमित पराक्रमी अर्जुन ने उनकी बात का आदर करते हुए बड़े दु:ख के साथ ‘तथास्तु’ कहकर उनके जाने का प्रस्ताव स्वीकार किया।
इसी प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अश्वमेध पर्व में पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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